बात तब की है जब
मैं बारहवीं में पढता था. कुछ ही दिन पहले मैंने ग्यारहवीं कक्षा पास की थी, हालाँकि पढाई में मेरी रूचि नहीं थी, फिर भी घर वालों के दबाव में आकर मैंने जीव विज्ञानं विषय ले लिया था. इसके
पीछे कारण ये था की घर पर, मेरे यहाँ, दवा की दुकान थी और मेरे पिता जी मुझे डाक्टर बनते देखना चाहते थे. भगवान की कृपा से दुकान अच्छी चल रही थी. और मैं दुकान
के छोटे-मोटे काम सीख गया था. पिता जी की उम्मीदों से अलग मुझे
अपनी जिंदगी में कुछ खास मुकाम हासिल करने की कोई तमन्ना नहीं थी. मैं अपना
ज्यतातर वक़्त मोहल्ले के लड़कों के साथ गप्पे लड़ाने में ही बिता देता था.
मेरी ही कक्षा में
'सुधा' नाम की एक लड़की भी पढ़ती थी और वो बहुत सुन्दर भी थी. मेरा उससे प्रेम
सम्बन्ध हो गया था. हम अक्सर चोरी-छिपे, एक-दुसरे से मिलते भी थे. गाँव में वह अपने दादा-दादी के साथ ही रहती थी, उसकी माता जी का देहांत हो चुका था और उसके पिता जी शहर में नौकरी करते थे और केवल छुट्टियों पर ही घर आते थे.
सुधा से मिलने की
आदत दिन-प्रतिदिन नशे में तब्दील होती गयी, और मेरी हिम्मत इतनी बढ़ गयी की मैं, अक्सर चोरी-छिपे रात में, सुधा के घर, उसके कमरे में खिड़की के रास्ते से घुस जाता था और एक-दों घंटे उसके साथ बिता कर, रात में ही अपने घर वापस आ जाता. मेरे घर वाले मेरी इस आदत से थोडा परेशान रहने लगे थे, पर मैंने उन्हें बताया था की मैं अपने दोस्त के यहाँ पढाई करने जाता हूँ. उन
दिनों जिंदगी का बस एक ही मकसद था, की किसी तरह अपने प्यार को मंजिल तक पहुँचाना
है, और सुधा से शादी करके घर बसना है.
एक दिन, रात को मैं सुधा से मिलने गया, और एक घंटे बिता कर ही, करीब १२ बजे, वापस लौटने के लिए उसके कमरे की खिड़की से बाहर निकल ही रहा था, की किसी ने मुझे देख लिया, और चोर-चोर चिल्लाकर शोर मचाने लगा. मुझे नहीं
पता था की वो कौन था, और मैं बदहवास होकर भागने लगा, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, और काफी लोग जग चुके थे. उन्होंने मुझे पकड़
लिया, और मुझे बहुत मारा. जब उनका गुस्सा कुछ शांत
हुआ तो उन्होंने मुझे पुलिस के हवाले कर दिया. शुरू में पुलिस को शक था की मैं चोरी करने के उद्देश्य से घर
में घुसा था पर मेरे पास से चोरी का कोई सामान बरामद न होते देख कर, उनको किसी अन्य चीज पर शक होने लगा. और उन्होंने भी मुझे बहुत प्रताड़ित किया.
अंत में मैंने उन्हें सारी बात बता दी.
तब तक मेरे पिता जी भी थाने में आ गए थे, उन्होंने मुझे छुड़वाया और घर ले गए. मेरे पिता जी की गाँव में बहुत
इज्जत थी, पर मेरे इस कृत्य ने उनका सर शर्म से नीचे झुका
दिया था. पूरे गाँव में शोर मच गया की मेरा, सुधा के साथ चक्कर चल रहा था. लोग नमक-मिर्ची लगाकर मेरे और सुधा के बारे में
बात कर रहे थे. गाँव में मेरे पिताजी की बहुत बदनामी हुयी. पुलिस की प्रताड़ना से
मेरा मनोबल जो टूटा सो अलग. इस घटना के बाद सुधा, कुछ दिन तक स्कूल नहीं आई फिर पता चला की वो
अपने पिता जी के साथ शहर चली गयी है और अब वही रह कर पढेगी. मेरे घर में मुझ पर भी
शासन लगा दिया गया था, पर मेरा मन करता की मैं भाग कर सुधा के पास चला जाऊ. एक-दो बार मैं गाँव छोड़
कर शहर भी गया, पर सुधा ने मुझसे मिलने से इंकार कर दिया.
सुधा में अचानक
हुआ ये परिवर्तन देख कर मैं बहुत हताश हो गया, और निराश कदमों से घर वापस आ गया. मेरे सपने टूट
चुके थे. मेरे पिता जी हालाँकि मुझसे कुछ कहते नहीं थे, पर उस घटना की वजह से हुयी बदनामी की कसक उनके
चेहरे पर साफ दिखती थी. मोहल्ले के लड़कों की नज़र में भी मैं गिर चुका था, और स्कूल में अक्सर मेरा मजाक उड़ाया जाता और मुझे जान-बुझ कर नज़रंदाज़ किया
जाता. मेरा कहीं भी मन नहीं लगता, न स्कूल में, न मोहल्ले में और न दुकान पर. मैं पूरी तरह असामाजिक तत्त्व बन
गया था.
लोगों को इस तरह मुझसे कतराता देख कर, मैं अपना ज्यातातर वक़्त अपने कमरे ही बिताने
लगा. किताबे खोलता तो सुधा का चेहरा दिखता, बंद करता तो घर-परिवार की बदनामी. कई बार कोशिश करने के बावजूद मैं सुधा को
भुला नहीं पा रहा था. मेरा, अक्सर रोने को दिल करता, और मुझे समझ में नहीं आ रहा था, की मैं क्या करूँ?
एक दिन मैं ऐसे ही
अपने कमरे में बैठा हुआ, हिंदी की काव्य पुस्तक के पन्ने पलट रहा था, की मेरी नज़र 'महादेवी वर्मा' जी द्वारा लिखी गयी एक कविता पर गयी-
"बांध लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा
बनेंगे, तितलियों के पर रंगीले?
तू न अपनी छांह को
अपने लिया कारा बनाना,
जाग तुझको दूर
जाना!, जाग तुझको दूर जाना!"
कविता की इन्ही
पंक्तियों ने मेरे मन पर जादू सा असर किया और मेरे मन की सोच बदल दी. मैंने फैसला
किया की मैं अपने ही कर्मो को अपने लिए कारागार नहीं बनाऊंगा. सुधा को मन से निकाल
कर, पिता जी के सपनों को साकार करूँगा. और उसी क्षण
मैंने डाक्टर बनने को अपना लक्ष्य बना लिया. सुधा को भुलाने के लिए मैंने अपने कमरे को महापुरुषों की तस्वीरों से
पाट दिया, मैंने महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ी, और उन्ही के जैसा बनने के सपने देखने लगा. सुबह
से शाम तक अपने कमरे में ही पढ़ता रहता, और जिन विषयों से पहले मैं मुंह चुराता फिरता था, अब वही विषय मुझे अपनी तरफ आकर्षित करने लगे. मैंने उस साल इंटर की परीक्षा
पास की, नम्बर तो बहुत अच्छे नहीं आये थे, पर मेरा आत्मविश्वास और विषयों पर मेरी पकड़ इतनी अच्छी हो गयी थी की मैंने इलाहाबाद जाकर मेडिकल की कोचिंग करने का निर्णय ले लिया. हालाँकि पिता जी मेरे इस निर्णय पर थोडा संदेह कर रहे
थे, उन्हें लगता था की मैं शहर जाकर दुबारा लड़कियों के चक्कर में फँस जाऊंगा. पर मैंने उन्हें विश्वास दिलाया और उनसे एक साल की मोहलत मांगी. पिता जी ने मेरी बात मान ली क्यों की इंटर की
पढाई के दौरान वो मेरी मेहनत को देख चुके थे.
मुझे याद है की
इलाहाबाद में मैंने दिन-रात एक कर दिया, न किसी से मिलना, न कही बाहर जाकर गप्पे लड़ना. सुबह तैयार होकर कोचिंग जाता, और दोपहर तक वापस कमरे पर लौटकर पढाई में जुट
जाता. उस वक़्त मेरे ऊपर एक नशा सा सवार हो गया था, और वो एक साल मेरे लिए जीने-मरने का प्रश्न बन गए थे. मैंने उस साल की
पी.ऍम.टी. की परीक्षा दी. पेपर अच्छा गया था, और मैं वापस घर आ गया.
कुछ दिन बाद, जब पी.ऍम.टी. का रिजल्ट आया, तो मेरी कोचिंग की तरफ से मेरे घर पर फ़ोन आया, उन्होंने बताया की मेरा रिजल्ट अच्छा आया है, पर मेरी रैंक बहुत अच्छी नहीं आयी है. उन्होंने मुझे एक साल और तैयारी करने की सलाह दी.
मेरा दिल बैठा गया. मुझे इस तरह के परिणाम की आशा न थी, और मुझे समझ में नहीं आ रहा था की मैं क्या
करूँ. उस वक़्त लगा की जीवन जैसे ख़त्म सा हो गया है, पर मेरे मन में अभी भी आशा की एक किरण शेष थी. मैंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की पी.ऍम.टी. भी दी थी और उसका रिजल्ट आना अभी बाकी था.
कुछ दिनों बाद
उसका भी रिजल्ट आया, पर मेडिकल में दाखिले के लिए मेरी रैंक बहुत कम थी. उस रैंक पर मुझे बी.
फार्मा. में दाखिला मिल रहा था. मैंने पिता जी को ये बात बताई, उन्होंने मुझसे कहा, "कोई भी काम या क्षेत्र छोटा नहीं होता, दाखिला लेकर आगे बढ़ो!"
मैंने बनारस
हिन्दू यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया. वहा से मैंने फार्मेसी में स्नातक की पढाई पूरी की, और फिर वही से फार्मेसी में ही स्नातकोत्तर की पढाई (ऍम. फार्मा.) भी
पूरी की. ऍम. फार्मा. के दौरान मैंने 'औषधीय रसायन' विषय पर शोध किया, और अपने शोध के परीक्षणों के दौरान एक ऐसे
रसायन की खोज की, जिसमे की शुरूआती परीक्षणों में 'दर्द निवारक गुण' थे. मेरे इस शोध को अमेरिका की प्रतिष्ठित शोध
पत्रिका "मेडिसिनल केमिस्ट्री रिसर्च" ने प्रकाशित किया. उसके बाद से मेरे कई शोध पत्र (रिसर्च पेपर) दुनिया की बेहतरीन
शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके है.
आज उसी शोध के बल
पर, मैं "राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ" में 'रिसर्च एसोसिएट' के पद पर कार्यरत हूँ, और औषधीय शोध करना ही मेरे जीवन का एक-मात्र
लक्ष्य बन गया है. आज भी जब मैं पलटकर उन पिछले दिनों की तरफ देखता हूँ, तो सुधा को शुक्रिया जरुर कहता हूँ. शायद वो उसका एक इंकार ही था, जिसने मेरी जिंदगी का लक्ष्य बदल दिया, और आज मैं एक शोध वैज्ञानिक बनने की राह पर अग्रसर हूँ.
जीतेन्द्र गुप्ता
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