Wednesday, December 19, 2012

"मिड डे मील"

"मिड डे मील" (Short Story)
शाम का वक़्त था. मास्टर साहब, अपने आठ साल के बेटे के साथ, टी.वी. देख रहे थे. दूरदर्शन पर "मिड डे मील प्रोग्राम" का प्रचार आ रहा था. एक छह-सात साल की बच्ची, विद्यालय में अपने साथ के बच्चे को भोजन की थाली में भोजन दिखाते हुए कह रही थी- "वाह! दाल की खुशबु; इससे हमें मिलता है प्रोटीन; रोज हरी सब्जी क्यों? क्यों की इससे मिलता है आयरन."
ये देख कर मास्टर साहब के बेटे ने पूछा- "पापा! क्या ये आपके विद्यालय में भी होता है?"
"हाँ बेटा!" मास्टर साहब ने अपने बच्चे की जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की.
"पर ये मेरे स्कूल में तो नहीं होता?" बच्चे ने आगे पूछा.
"बेटा! मैं जहाँ पढ़ाता हूँ वो सरकारी विद्यालय है; वहां गरीब बच्चे पढ़ते है. तुम्हारा स्कूल तो प्राइवेट स्कूल है और हमारे सरकारी विद्यालय से कई गुना अच्छा है."
मास्टर साहब का बेटा शहर के ही एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढता था. स्कूल के मिड डे मील प्रोग्राम के प्रचार को देख कर उसको यह सब नजदीक से देखने की इच्छा हुयी तो उसने अपने पापा यानि मास्टर साहब से जिद करनी शुरू कर दी, की वो ये सब देखने मास्टर साहब के विद्यालय जायेगा. मास्टर साहब ने पहले तो उसको समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उनका बेटा नहीं माना, तो वे उसको लेकर अगले दिन अपने विद्यालय गए.
सुबह ही विद्यालय में रसोइया आया और उसने बच्चो के लिए, दोपहर का भोजन तैयार करने का प्रबंध शुरू कर दिया. भोजन खुले में बन रहा था और आस-पास गली के आवारा कुत्ते मुंह मारने पहुँच गए थे. रसोइये ने दोपहर तक भोजन बना लिया था और जैसे ही घंटी बजी; विद्यालय के बच्चे अपनी-अपनी थाली और कटोरी लेकर भोजन करने पहुँच गए. रसोइये ने बच्चो को खाना वितरित किया, और बच्चे भोजन पर टूट पड़े.
बच्चो को इस तरह भोजन करता देख, मास्टर साहब के बेटे को भी भोजन करने की इच्छा हुयी. वो रसोइये के पास गया; और उससे खाना मांग कर खाने लगा. मास्टर साहब, जो अभी तक दूसरों से गप्पे लड़ा रहे थे, की नज़र सहसा अपने बेटे पर गयी और उसको मिड डे मील का खाना खाते देख कर वो दौड़ते हुए अपने बेटे के पास आये. उन्होंने अपने बेटे के हाँथ से मिड डे मील का खाना छीन कर दूर फ़ेंक दिया, और रसोइये पर बरस पड़े- "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी मेरे बेटे को ये सड़ा-गला खाना खिलाने की?"
रसोइया कुछ समझ नहीं पाया और उसने मास्टर साहब से विनती करनी शुरू कर दी- "मुझे माफ़ कर दीजिये साहब! मुझे पता नहीं था की ये आप के बेटे है. वर्ना मैं इनको ये खाना कतई नहीं खिलाता."
मास्टर साहब का बेटा अपने पापा के इस नए रूप को देख कर सन्न रह गया था. पर अगले ही पल उसने मास्टर साहब से कहा- "लेकिन पापा! यही खाना तो ये बच्चे भी खा रहे है; इसमे इतना बुरा क्या है?"
"बुरा है बेटा!" मास्टर साहब ने अपने बेटे से कहा- "ये खाना हमारे जैसे सभ्य लोगों के घरो के बच्चों के लिए नहीं है." फिर वो रसोइये की तरफ मुड़े- "अगली बार से यह बात ध्यान रखना और सभ्य तथा असभ्य बच्चों को पहचानना सीखो. समझे!" रसोइया मास्टर साहब के सामने हाथ जोड़े खड़ा था.
मास्टर साहब का बेटा खाना खाते हुए बच्चो को देखता रहा, और उन्ही बच्चों के बगल में बैठे कुत्तों से, उन बच्चों की तुलना करता रहा. और अब धीरे-धीरे उसे उनमे अंतर समझ में आने लगा. मिड डे मील का खाना खाते हुए बच्चे और कुत्ते दोनों ही जानवर थे; बस फर्क सिर्फ इतना था की मिड डे मील का खाना बच्चों को पहले दिया जाना था; और उसके बाद का बचा-खुचा उन बच्चो के बगल बैठे आवारा कुत्तों को......