Wednesday, December 19, 2012

"मिड डे मील"

"मिड डे मील" (Short Story)
शाम का वक़्त था. मास्टर साहब, अपने आठ साल के बेटे के साथ, टी.वी. देख रहे थे. दूरदर्शन पर "मिड डे मील प्रोग्राम" का प्रचार आ रहा था. एक छह-सात साल की बच्ची, विद्यालय में अपने साथ के बच्चे को भोजन की थाली में भोजन दिखाते हुए कह रही थी- "वाह! दाल की खुशबु; इससे हमें मिलता है प्रोटीन; रोज हरी सब्जी क्यों? क्यों की इससे मिलता है आयरन."
ये देख कर मास्टर साहब के बेटे ने पूछा- "पापा! क्या ये आपके विद्यालय में भी होता है?"
"हाँ बेटा!" मास्टर साहब ने अपने बच्चे की जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की.
"पर ये मेरे स्कूल में तो नहीं होता?" बच्चे ने आगे पूछा.
"बेटा! मैं जहाँ पढ़ाता हूँ वो सरकारी विद्यालय है; वहां गरीब बच्चे पढ़ते है. तुम्हारा स्कूल तो प्राइवेट स्कूल है और हमारे सरकारी विद्यालय से कई गुना अच्छा है."
मास्टर साहब का बेटा शहर के ही एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढता था. स्कूल के मिड डे मील प्रोग्राम के प्रचार को देख कर उसको यह सब नजदीक से देखने की इच्छा हुयी तो उसने अपने पापा यानि मास्टर साहब से जिद करनी शुरू कर दी, की वो ये सब देखने मास्टर साहब के विद्यालय जायेगा. मास्टर साहब ने पहले तो उसको समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उनका बेटा नहीं माना, तो वे उसको लेकर अगले दिन अपने विद्यालय गए.
सुबह ही विद्यालय में रसोइया आया और उसने बच्चो के लिए, दोपहर का भोजन तैयार करने का प्रबंध शुरू कर दिया. भोजन खुले में बन रहा था और आस-पास गली के आवारा कुत्ते मुंह मारने पहुँच गए थे. रसोइये ने दोपहर तक भोजन बना लिया था और जैसे ही घंटी बजी; विद्यालय के बच्चे अपनी-अपनी थाली और कटोरी लेकर भोजन करने पहुँच गए. रसोइये ने बच्चो को खाना वितरित किया, और बच्चे भोजन पर टूट पड़े.
बच्चो को इस तरह भोजन करता देख, मास्टर साहब के बेटे को भी भोजन करने की इच्छा हुयी. वो रसोइये के पास गया; और उससे खाना मांग कर खाने लगा. मास्टर साहब, जो अभी तक दूसरों से गप्पे लड़ा रहे थे, की नज़र सहसा अपने बेटे पर गयी और उसको मिड डे मील का खाना खाते देख कर वो दौड़ते हुए अपने बेटे के पास आये. उन्होंने अपने बेटे के हाँथ से मिड डे मील का खाना छीन कर दूर फ़ेंक दिया, और रसोइये पर बरस पड़े- "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी मेरे बेटे को ये सड़ा-गला खाना खिलाने की?"
रसोइया कुछ समझ नहीं पाया और उसने मास्टर साहब से विनती करनी शुरू कर दी- "मुझे माफ़ कर दीजिये साहब! मुझे पता नहीं था की ये आप के बेटे है. वर्ना मैं इनको ये खाना कतई नहीं खिलाता."
मास्टर साहब का बेटा अपने पापा के इस नए रूप को देख कर सन्न रह गया था. पर अगले ही पल उसने मास्टर साहब से कहा- "लेकिन पापा! यही खाना तो ये बच्चे भी खा रहे है; इसमे इतना बुरा क्या है?"
"बुरा है बेटा!" मास्टर साहब ने अपने बेटे से कहा- "ये खाना हमारे जैसे सभ्य लोगों के घरो के बच्चों के लिए नहीं है." फिर वो रसोइये की तरफ मुड़े- "अगली बार से यह बात ध्यान रखना और सभ्य तथा असभ्य बच्चों को पहचानना सीखो. समझे!" रसोइया मास्टर साहब के सामने हाथ जोड़े खड़ा था.
मास्टर साहब का बेटा खाना खाते हुए बच्चो को देखता रहा, और उन्ही बच्चों के बगल में बैठे कुत्तों से, उन बच्चों की तुलना करता रहा. और अब धीरे-धीरे उसे उनमे अंतर समझ में आने लगा. मिड डे मील का खाना खाते हुए बच्चे और कुत्ते दोनों ही जानवर थे; बस फर्क सिर्फ इतना था की मिड डे मील का खाना बच्चों को पहले दिया जाना था; और उसके बाद का बचा-खुचा उन बच्चो के बगल बैठे आवारा कुत्तों को......

Thursday, November 29, 2012

परिवर्तन..


 परीक्षा का केंद्र बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में था, और मैंने नियत समय पर वहां पंहुचा और परीक्षा दे दी. परीक्षा अच्छी गयी थी, और मन सफलता की नईं कुलांचें भर रहा था. परीक्षा कक्ष से बाहर निकला तो मन अनायास ही अध्यात्मिक हो गया. आप काशी जाएँ और मन अध्यात्मिकता में ना रमें, ऐसा हो नहीं सकता. सोचा इतनी दूर आया हूँ, तो क्यूँ ना काशी में बाबा विश्वनाथ जी के दर्शन ही करता चलूँ. और मेरे पैर अपने आप ही, विश्वविद्यालय परिसर में स्थित, विश्वनाथ मंदिर की तरफ बढ़ चले.
मैंने मंदिर में प्रवेश किया, और प्रवेश द्वार के पास ही बने सामान-घर में, अपना बैग और जूते जमा कर दिए. फिर हाथ-पैर धोकर मंदिर में प्रवेश कर गया. मंदिर की भव्यता, आकर्षण, और आध्यात्मिकता में मेरा रोम-रोम पुलकित हो रहा था. मेरी नज़रें, मंदिर की दीवारों पर लगाये गएऔर संगमरमर के पत्थरों पर उकेरे गए कथाचित्रों को ध्यान से देखती जा रही थी. किसी पत्थर पर वेदों की बातें लिखी थी तो किसी पर पुराणों के कथन, कुछ पर उपनिषदों की पौराणिक कहानियां सचित्र वर्णित थी तो कुछ पर गीता के महान उपदेश चित्रित किये गए थे.
मैं खुद को, दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म और सर्वाधिक महान धर्म का हिस्सा महसूस करके गर्व का अनुभव कर रहा था.ढेर सारी बातें जिन्हें हम बचपन से ही संस्कृत की किताबों में पढ़ते आये है और ढेर सारे उद्धरण जिन्हें हम रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद और पुराणों से सुनतें आये है, एक साथ एक ही जगह पर मानों जीवंत हो उठी थी. "सदा सत्य बोलो!", "कर्म करो, फल की इच्छा मत करो!", "आत्मा अजर-अमर है!" इत्यादि-इत्यादि. मैंने मंदिर के गर्भगृह में विराजमान भगवान् शंकर के प्रतिरूप शिवलिंग को प्रणाम किया और अपनी सफलता की प्रार्थना की.
मेरा मन और शरीर का रोम-रोम आध्यात्मिकता और सात्विकता से पुलकित हो उठा था. मैंने घडी देखी, मेरे वापस लौटने का वक़्त लगभग हो चुका था. मैंने मंदिर से बाहर जाने के लिए गेट की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए. वापस लौटते हुएमैं फिर से सामान-घर में गया और अपने जूते पहने तथा अपना बैग उठाया, तो सहसा मेरी नज़र वहां टंगे बोर्ड पर पड़ी-
"सामान-घर प्रयोग करने का शुल्क"
प्रति व्यक्ति- १ रूपया
"बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए यह सुविधा निःशुल्क है!"

मुझे लगा की की मैं अपने पैसे बचा सकता हूँ, और मैंने अपना बैग उठाया और बाहर जाने लगा. तभी वहा पर बैठे सामान घर के संरक्षक ने मुझे टोका- "सुनिए भाई साहब! आपने पैसे नहीं दिए?"
तुरंत ही मैंने जवाब दिया, "मैं यही का विद्यार्थी हूँ."  
इस पर सामान घर के संरक्षक ने कहा, "अपना परिचय पत्र दिखाइए?"
मैं थोडा सकपकाया, फिर अपने हाथों से अपने पैंट की जेबों को चेक करते हुए मैंने बहाना बनाया, "शायद मैं अपना बटुआ, छात्रावास में अपने कमरे पर भूल आया हूँ." और जैसे उसे यकीन दिलाने के लिए, मैंने एक छात्रावास का नाम भी उसे बता दिया, जो कि रास्ते में मैंने देखा था.
सामान घर के संरक्षक ने मुझसे और सवाल नहीं किये और मैं वहां से चलता बना. मैं अपनी चालाकी पर इतरा रहा था की मैं कितना स्मार्ट हूँ और कितनी आसानी से मैंने उस आदमी को बेवकूफ बना दिया. फिर मैं मंदिर परिसर से एकदम बाहर आया, और वापस मुड कर "विश्वनाथ मंदिर" की तरफ देखा. अचानक ही मंदिर की भव्यता और विशालता के आगे मैं खुद को बहुत तुक्ष महसूस करने लगा. मुझे यह अहसास हुआ कि मैं नैतिक रूप से कितना गिरा हुआ हूँ, जिसने अपने पैसे  बचाने के लिए झूठ का सहारा लेना भी अनुचित नहीं समझा. 
अभी-अभी मैं मंदिर में बड़ी- बड़ी बातें सीख कर बाहर आया, ना जाने कितने ही अध्यात्मिक और सात्विक  विचार मेरे मन में आये, पर क्या वास्तव में मैं धर्म का अभिप्राय समझ पाया? क्या धर्म का मतलब केवल कर्मकांडों और अनुष्ठानों से है, व्यवहार और नैतिकता से इसका कुछ लेना देना नहींअचानक ही मुझे उस मंदिर का अस्तित्व ही व्यर्थ जान पड़ा, लगा कि इतना भव्य मंदिर भी मनुष्य में नैतिकता का संचार नहीं कर सका, और मेरी आंखे खुल चुकी थी.
मैं वापस सामान-घर के संरक्षक के पास गया और उसे एक रूपये देते हुए उससे क्षमा मांगी और कहा, "माफ़ कीजियेगा, मैंने आपसे झूठ कहा था कि, मैं यहाँ का विद्यार्थी हूँ, मैं यहाँ केवल परीक्षा देने आया था." 
पैसे अदा करके, सर झुकाए हुएमैं मंदिर परिसर से बाहर निकल आया. मेरा मन अब अपराधबोध से खुद को मुक्त महसूस कर रहा था. और मैं वहा से अपने घर के लिए रवाना हो गया. सच्चे अर्थो में, अब जाकर मैंने उस मंदिर के अस्तित्व को सफल बना दिया था....... 
जितेन्द्र गुप्ता 

Sunday, November 25, 2012

नाम में क्या रखा है?


बहुत समय पहले, "सुजानगंज" नामक गाँव में "घनानंद दास" नाम का एक लड़का रहता था. वह बहुत शरारत करता था. उसकी शरारतों से तंग आकर उसके गाँव के लड़कों ने उसका नाम "ठनाठन दास" रख दिया. अब वो जहाँ कही भी जाता लोग उसको चिढाने के लिए "ठनाठन दास" कह कर बुलाते. उसके घर में उसके सारे भाई-बहनगाँव में सारे बच्चे, बूढ़े, और जवान लोग अब उसको "ठनाठन दास" के नाम से ही बुलाने लगे. शुरू-शुरू में जब "घनानंद दास" छोटा था, वो इन बातों को गंभीरता पूर्वक नहीं लेता था, पर जैसे-जैसे वो बड़ा होता गया, और लोगों ने उसे उसके असली नाम की जगह उसको "ठनाठन दास" के नाम से ही पुकारा जाना जारी रखा, तो उसको बुरा लगने लगा. और एक दिन जब उसकी अपनी माँ ने ही मजाक ही मजाक में उसको "ठनाठन दास" कह कर बुला लिया, तो उसको बहुत गुस्सा आयाऔर उसने कहा, "माँ! आज तक  बाहर के लोग ही मुझे "ठनाठन दास" के नाम से बुलाते थे, लेकिन उनकी बात और थी. पर आप मेरी अपनी माँ होकर भी मेरा मजाक उड़ा रही है, इसलिए आज से मैं ये घर तो क्या ये गाँव ही छोड़कर जा रहा हूँ. कही किसी और जगह जा कर, मैं अपना बढ़िया सा कोई नाम रखूँगा और कुछ पहचान बना कर ही घर वापस लौटूंगा.
इतना कहकर "घनानंद दास" ने अपना घर त्याग दिया, और फिर अपने गाँव से दूर पूर्व दिशा की तरफ चल पड़े. घर छोड़ते वक़्त "घनानंद दास" को दुःख तो हो रहा था पर वो अपने बिगड़े नाम से इतने दुखी हो गए थे,  की उनमे घर लौटने की लेश मात्र भी इच्छा शेष नहीं थी. मन में कुछ परिवर्तन की आशा लेकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ चले.
अपने रस्ते पर आगे बढ़ते हुए उन्हें एक लड़की दिखाई दी, जो गाय का गोबर उठा रही थी. घर से काफी दूर पैदल चलते-चलते घनानंद को प्यास भी बहुत लग आई थी इसलिए उन्होंने उस लड़की से कहा "बेटीक्या तुम मुझे थोड़ा पानी पिलाना पसंद करोगी?" लड़की अपने घर के अन्दर गयी और पानी लेकर आई. घनानंद ने पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई. खुश होकर घनानंद ने उस लड़की से उसका नाम पूछा . उस लड़की ने बताया की उसका नाम "लक्ष्मीना" है. घनानंद को उस लड़की के नाम और काम में अंतर स्पष्ट नजर आया. उन्होंने सोचा की "इस लड़की का नाम इतना सुन्दर है, पर ये कितना निम्न स्तर का कार्य कर रही है? क्या इस लड़की को अपने नाम की गरिमा का जरा भी अहसास नहीं है?" पर घनानंद दास तो इसमें कुछ भी नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने उस लड़की को आशीर्वाद दिया और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए.
सुबह से ही पैदल चलते-चलते घनानंद को भूख भी लग आई थी, पर वो घर पर तो थे नहीं, जो घर में जाते और अपनी माँ से खाना मांग कर खा लेते.  वो तो अपने घर से काफी दूर आ गए थे इसलिए खाना खाने का प्रबंध उन्हें अब अपने रास्ते में ही करना था. उन्होंने अपने आस-पास नज़र दौड़ाई, और कुछ दुरी पर उन्हें आम का एक पेड़ दिखाई दिया. घनानंद ने अपने कदम उस तरफ बढ़ा दिए. जब वो आम के उस पेड़ तक पहुंचे, तो उन्होंने देखा की एक गरीब आदमी फटे-पुराने कपड़ों में जमीं पर बैठा हुआ था, और मिटटी पर उग आई घास को छिल रहा था. पास ही में उस आदमी का घर भी था. घनानंद को समझ में आ गया की यह पेड़ इसी आदमी का है. पर अपनी भूख के आगे उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था इसलिए उन्होंने उस आदमी से पूछ लिया
"भाई! अगर तुम बुरा ना मानो तो मैं तुम्हारे आम के पेड़ से, कुछ आम तोड़ कर खा लूँ? मैं बहुत भूखा हूँ और अपने घर से बहुत दूर आ गया हूँ." 
उस आदमी ने उन्हें इज़ाज़त दे दी. बस फिर क्या था, घनानंद ने झट से पेड़ पर चढ़ कर कुछ आम तोड़े और लपालप खाने शुरू कर दिए. आम खा कर जब उनकी भूख शांत हुयी, तो उन्होंने उस आदमी को धन्यवाद देने के लिए उससे उसका नाम पूछ लिया. उस आदमी ने उन्हें बताया की उसका नाम "धनपत" है. इस पर घनानंद ने कहा की-
"भाई! तुम घास क्यूँ छिल रहे थे, तुम्हारे यहाँ तो कोई पालतू जानवर दिख नहीं रहा?" 
इस पर उस आदमी ने उन्हें बताया, "भाई! मैं बहुत गरीब हूँ और मेरे  पास कोई खेत भी नहीं है जहाँ मैं खेती कर के अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकू इसलिए मैं यहाँ उगी घास छिल रहा था ताकि इसे बाज़ार में बेच कर कुछ पैसे कमा सकू."
उसकी बात सुन कर घनानंद ने उससे अपनी सहानुभूति जाहिर की और आम खिलाने के लिए उसको धन्यवाद् देकर आगे बढ़ गए. रास्ते में उन्होंने सोचा, की उस आदमी का नाम "धनपत" था पर वो कितना गरीब था, यहाँ तक की उसके पास अपना तन ढकने के लिए ढंग के कपडे तक नहीं थे. और फिर घनानंद के मन में एक सवाल उठा की "क्या नाम का काम से कुछ भी लेना-देना नहीं है?"
अपने मन में इन्ही सवालों का जवाब खोजते हुए घनानंद अपने रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहे थे की की रास्ते में उन्हें कुछ लोग रोते हुए दिखाई दिए. घनानंद ने उनमें से एक आदमी से पूछा की "भाई! तुम सब लोग क्यूँ रो रहे हो? तुम लोगों को क्या कोई दुःख है?" 
इस पर उस आदमी ने उन्हें बताया की उसके गाँव के बहुत ही महान समाज सेवक, "सेठ अमरनाथ" का देहांत हो गया है इसलिए ये सब लोग रो रहे है. वो बहुत अच्छे आदमी थे और जो भी उनके पास मदद के लिए जाता था वो उसको कभी खाली हाँथ नहीं लौटाते थे. 
उसकी बात सुनकर घनानंद ने सोचा की, "नाम अमरनाथ होते हुए भी आज यह इंसान मृत पड़ा हुआ है. इसका मतलब नाम का काम से निश्चित रूप से कुछ भी लेना-देना नहीं है. और नाम में कुछ भी नहीं रखा है." अब घनानंद को अपने मन में, अपने नाम को लेकर पैदा हुई उलझनों का जवाब मिलने लगा था. उन्होंने अपनी अभी तक की अपनी यात्रा से यह निष्कर्ष निकाला की-
"लक्ष्मीना गोबर बिने, धनपत छिले घास.
अमरनाथ भी मर गए, भले ठनाठन दास."

और अब घनानंद का गुस्सा भी छूमंतर हो गया था और वो खुशी-खुशी अपने घर को वापस लौट चले.
जितेन्द्र गुप्ता 

नासमझ श्रोता..


एक बार, सुजानगंज नमक गाँव में प्रवचन हो रहा था, और वहां प्रवचन देने के लिए एक बहुत ही बड़े सिद्ध महात्मा पुरुष पधारे थे. प्रवचन की जगह का पंडाल लोगों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था, और महात्मा जी का प्रवचन चालू था. काफी देर ईश्वर की लीलाओं का बखान करने के बाद महात्मा जी ने अपने भक्तों को उपदेश देना शुरू किया. उन्होंने कहा;- "भक्तजनों! हमें कभी भी चोरी जैसा कुकृत्य नहीं करना चाहिए. इस नश्वर लोक में हम जो बोयेंगे, उस परलोक में वही जाकर काटेंगे. अतः, अगर हम यहाँ इस लोक में एक रूपया चुरायेंगे, तो उस परलोक में हमें एक रूपया दुबारा भरना पड़ेगा. इसके स्थान पर अगर हम एक रूपया दान में दे देते है, तो वह परलोक में हमें इस एक रुपये दान के बदले दस रूपया वापस मिलेगा. यह हमारे किये गए पुण्य के काम होते है जो दिन-प्रतिदिन बढ़ते रहते है. हमारा दान में दिया गया एक रूपया, हमारा नुकसान न होकर, उस परलोक के बैंक में जमा किया गया फिक्स डिपोजिट है, जिसका मूल्य हमें मूलधन से बढ़कर कई गुना ज्यादा मिलेगा. अतः भक्तों! दान की महिमा को समझो."  
प्रवचन सुन रहे भक्तों में से, एक भक्त जिसका नाम "रमेश" थाको यह बात बहुत पसंद आई, और उसने इस कथन को कसौटी पर कसने का निर्णय कर लिया. कुछ दिन बाद, रमेश ने अपने पडोसी के घर से पांच रुपये चुरा लिए, और फिर उस चोरी के पांच रुपये में से तीन रुपये, अपनी पसंद की चीजें खरीद कर खर्च कर डाले. अब उसने देखा की उसके पास चोरी के पांच रुपये में से केवल दो रुपये ही बचे है. उसने सोचा की "अगर मैं यह दो रुपये किसी को दान में दे दूँ, तो महात्मा जी के कथनानुसारइसके बदले मुझे परलोक में बीस रुपये के पुण्य वापस मिल जायेंगे. और क्यों की मैंने पांच रुपये चोरी भी किये है, अतः मुंझे परलोक में पांच रुपये सजा के रूप में भरना भी होगा. तो अगर मैं बीस रुपये में से पांच रूपये निकाल भी दूँ तो भी पंद्रह रुपये के पुण्य मेरे पास बचते ही बचते है. यानि हर तरह से मैं लाभ की ही स्थिति में रहूँगा."
बहुत दिनों बाद जब रमेश की मृत्यु हुयी, और वो परलोक पहुंचा, तो वहां पहुँच कर उसमे यमदूत से अपने पंद्रह रुपये के पुण्य की मांग की. यमदूत ने कहा की "तुम्हारे खाते में तो  एक भी रुपये का पुण्य नहीं है, क्यों की तुमने कभी भी किसी को कुछ भी दान में नहीं दिया. केवल पांच रुपये की सजा ही लिखी गयी है क्यों की तुमने अपने पडोसी के घर से पांच रुपये की चोरी की थी. अब तुम तैयार हो जाओ क्यों की तुम्हे पांच रुपये की सजा कटनी ही होगी."
यमदूत के इस कथन पर रमेश ने उसका विरोध किया, उसने कहा, "आप यह कैसे कह सकते है की मैंने कभी भी कुछ भी दान नहीं किया, जब की मुझे अच्छी तरह से याद है की मैंने दो रुपये दान किये थे, जिसके बदले में मुझे यहाँबीस रुपये वापस मिलने ही चाहिए. यह सही है की मैंने पांच रुपये अपने पडोसी के घर से चुराए थे, इसके बदले आप मेरे बीस रुपये के पुण्य में से पांच रुपये की सजा कट कर मेरे पंद्रह रुपये के पुण्य, मेरे  खाते में तुरंत डालिए."
पर यमदूत उसकी बात नहीं मान रहा था, उसने रमेश से कहा की, "देखो, मुझे चित्रगुप्त जी से जो आदेश प्राप्त हुआ है मैं उसी का पालन कर रहा हूँ. अगर तुम्हे इस निर्णय पर कोई आपत्ति है, तो तुम्हे यमराज जी के पास चलना होगा. वो ही तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान करेंगे."
रमेश ने यमदूत से यमराज जी के पास चलने को कहा, और दोनों यमराज जी के दरबार मे पहुँच गए. यमराज जी के दरबार मे यमराज जी अपने सिंघासन पर बैठे हुए थे और उनके दरबार मे जाने के लिए पृथ्वी से आये मनुष्यों की लाइन लगी हुयी थी. हर मनुष्य अपने-अपने नंबर का इंतज़ार कर रहा था. यमराज जी के बगल मे चित्रगुप्त जी अपने समस्त अभिलेखों और बहियों के साथ बैठे हुए थे. वो बारी-बारी से हर मनुष्य द्वारा किये गए पाप और पुण्य के कर्मों को यमराज जी के सामने बताते और फिर यमराज जी उस पर अपना फैसला सुनाते. हर इन्सान को अपने कर्मों के अनुसार, स्वर्ग और नर्क का फैसला सुनाया जा रहा था.
जब रमेश की बारी आई तो यमदूत ने उस आदमी की सारी समस्या यमराज जी के सामने व्यक्त की. इस पर यमराज जी ने चित्रगुप्त को रमेश के जीवन का अभिलेख दुबारा खोलने का आदेश दिया और कहा की "चित्रगुप्त! यह पता लगाओ की इस मनुष्य के पुण्य के पंद्रह रुपये कहाँ गए? क्या तुम्हारे अभिलेखों मे कही कोई त्रुटी है?"
यमराज जी के आदेश पर चित्रगुप्त ने अपने समस्त अभिलेख दुबारा जांचने शुरू किये. काफी देर जाँच-पड़ताल करने के बाद, वे बोले, "महाराज! मेरे अभिलेखों मे कही कोई त्रुटी नहीं है. दरअसल बात यह है की इस मनुष्य ने अपने पडोसी के घर से पांच रुपये चुराए थे, जिसमे से तीन रुपये इसने अपने ऊपर खर्च किये तथा बाकि के दो रुपये इसने दान मे दे दिए. अब क्यों की इसने पांच रुपये चोरी किये थे जो की पाप का कर्म है, अतः इसकी सजा के रूप मे इस मनुष्य को पांच रुपये दुबारा यहाँ भरना होगा. और चूँकी दान मे दिए गए दो रुपये इसके नहीं बल्कि इसके पडोसी के थे अतः पुण्य के बीस रुपये इसके खाते मे ना आकर इसके पडोसी के खाते मे चढ़ाये जा चुके है. महाराज! कही कोई भी त्रुटी नहीं हुयी है, सारे अभिलेख सही है."
चित्रगुप्त जी की बात अब रमेश की समझ मे आ गयी थी, और अब उसे अपने किये पर पछतावा भी हो रहा था. उसे ग्लानी हो रही थी की उसने महात्मा जी की बात को ठीक तरह से क्यों नहीं समझा? और उनकी कही गयी बात को, अपने फायदे के लिए गलत तरह से समझ बैठा. 
और फिर रमेश को यमलोक मे सजा काटने के लिए भेज दिया गया.
जितेन्द्र गुप्ता 

स्त्रीचरित्र..


भाग-1
क्या पच्चीस साल का हो जाना, शादी करने की उम्र हो जाने जितना महत्वपूर्ण है? यह सवाल इसलिए मेरे मन में आया क्यों की उस वक़्त तक, मेरे ज्यादातर दोस्तों ने शादी कर ली  थी और वो अपनी जिंदगी में धीरे-धीरे सेटल हो रहे थे. 
कुछ समय पहले, मैंने "खुशवंत सिंह" जी, जो की इंग्लिश साहित्य के बहुत बड़े लेखक है और जिन्होंने ढेर सारी कहानिया और उपन्यास लिखे है तथा जो अग्रणी समाचार पत्रों में साप्ताहिक स्तम्भ भी लिखते है, की आत्मकथा "सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत" पढ़ी थी. अपनी इस पुस्तक में उन्होंने यह बात स्वीकार की है की, "अपने साथियों में से कई को अपने सामने ख़तम होता देख कर मुझे भी यह अहसास होने लगा है, की मेरा भी अंत अब निकट है. और मुझे अब दुगनी रफ़्तार से अपने द्वारा निर्धारित किये गए लक्ष्यों को पूरा करने में लग जाना चाहिए. मुझे दुःख है, की मैं अपनी जिंदगी में, अगर  कुछ और पहले लिखना शुरू कर देता तो आज मैं कुछ ज्यादा लिख चुका होता." उन्होंने यह भी लिखा है की "अगर आप सोचते है की आपकी मृत्यु के बाद दुनिया आपको याद करे, तो आप कुछ ऐसा कर जाइये जिससे आपके जाने के बाद दुनिया का कुछ भला होता रहे, या फिर कुछ ऐसा लिख जाइये जिसे वो आपके जाने के बाद भी पढ़ते रहे."
मैंने उनसे सबक सीखा था, और मरने से पहले मैं अपनी जिंदगी में कुछ बन जाना चाहता था. शादी करना, बहुत लोगों के लिए नयी जिंदगी शुरू करने जैसा अनुभव होता है, सच है, मृत्यु के बाद ही नया जीवन मिलता है और शादी करने को मैं मृत्यु के समान मानता था इसलिए, शादी करने के पहले ही मैं अपनी जिंदगी को एक निश्चित दिशा दे देना चाहता था. पर मेरी दादी को यह बात कौन समझाता, वो जब-देखो तब कोई न कोई लड़की का रिश्ता मेरे सामने रख देती थी, और मुझे भावनात्मक रूप से ब्लेकमेल करने लगती थी.
"ईश्वर! देखो इस लड़की की फोटो कितनी सुन्दर है? घर के काम-काज में निपुड होने के अलावा इसने बी.एड भी कर रखा है." एक लड़की की फोटो मेरे सामने रखते हुए दादी ने मुझसे कहा.
मैंने  उस फोटो पर ध्यान नहीं दिया और कहा, "पर दादी! मुझे तो अभी शादी ही नहीं करनी. तुम फालतू में परेशान मत हो."
"शादी क्यों नहीं करनी? तेरे सारे दोस्तों ने शादी कर ली, तेरी उम्र पच्चीस पार कर रही है, और तू हर बार शादी के लिए मना कर दे रहा है? क्या बुढा हो जायेगा तब शादी करेगा? और तब तुझसे शादी करेगा भी कौन?" दादी कहे जा रही थी. और मैं खामोश बैठा सुन रहा था. उनका गुस्सा करना वाजिब था, पर मेरा मना करना भी एक तरह से वाजिब ही था.
"लगता है जब मैं मर जाउंगी तभी तू शादी के लिए हाँ करेगा?" दादी ने मुझे इमोशनल करने की कोशिश की. 
पर मैंने उनकी भावनाओं को एक तरफ करते हुए, धीरे से कहा, ""दादी! अभी मुझे कुछ करना है, मेरा सपना है की सिविल सर्विस परीक्षा पास कर के अपनी जिन्दगी में कुछ बन जाऊ. शादी तो मैं कभी भी कर सकता हूँ. और फिर अभी इतनी जल्दी ही क्या है?"
"तू देख रहा है, घर में कितनी समस्याए है? तेरे पिता जी को और घर में हर एक को कही आने-जाने में, घर की देख-भाल करने में और खाना बनाने इत्यादि में कितनी तकलीफ होती है? शादी के लिए हाँ कर दे और फिर तेरे जो जी में आये करना, मैं तुम्हे मना नहीं करुँगी, घर पर पहले से ही इतना बड़ा व्यवसाय हैकी तुझे उसके लिए कुछ कमाने की जरुरत भी नहीं है?" दादी कहती जा रही थी, और मैं मष्तिस्क शुन्यता वाली स्थिति में घिरता जा रहा था. मैं जानता था की अगर मैं यहाँ कुछ भी बोलूँगा तो दादी को बुरा लग सकता है, इसलिए मैं वहां से उठा, और घर के बाहर घुमने के लिए निकल गया.
पर मेरे मन में उलझने तो थी. "क्या मैं सही कर रहा हूँ? कही बाद में मुझे इसके लिए पछताना न पड़े?" ऐसे समय जब आपके सारे जान-पहचान के लोग बंधे-बंधाये पारंपरिक रास्ते पर चल रहे हो, तब आपको अपने दिल की आवाज़ से निर्धारित किये गए नए रस्ते पर चलने में बहुत हिम्मत और प्रबल इच्छाशक्ति दिखाने की जरुरत होती है. "क्या दादी का कहना, मुझे मान लेना चाहिए और अपनी जिंदगी में भटकाव को यही ख़तम कर देना चाहिए?" जैसे कई प्रश्न मेरे दिमाग में कौंध रहे थे, और मेरे पैर शहर के बीच से बहती हुयी गोमती नदी की तरफ बढे जा रहे थे. मैं जब भी उदास होता था, तो अपने शहर के बीच से बहती गोमती नदी, के ऊपर बने "सद्भावना पुल" पर ही जाता था, और वही मुझे शांति मिलती थी. आज भी मैं वही करने जा रहा था.
घर से कुछ ही दूर पहुंचा था की मेरा मोबाइल बजने लगा, मैंने फ़ोन उठायाये अभिषेक का फ़ोन था-
"कैसे हो भाई और कहाँ हो?" वह पूछ रहा था.
"ठीक हूँ यार; तुम बताओवैसे मैं सद्भावना पुल की तरफ जा रहा हूँ." मैंने अनमनेपन से जवाब दिया.
"बहुत दिन हो गए तुमसे मिले हुए; अभी मिल सकते हो क्या?" उसने फिर से कहा.
"वहीँ पुल पर आ जाओ, मैं कुछ देर वही पर बिताने वाला हूँ." मैंने कहा, और फिर उसने फ़ोन काट दिया. 
अभिषेक मेरे ही साथ बी.टी.सी. (बेसिक टीचिंग कोर्से) का प्रशिक्षण ले रहा था. पर उसमे और मुझमे अन्तर था. मैं प्रशिक्षण हेतु हर रोज प्रशिक्षण केंद्र पर जाता था जबकि वो शुरुआत के कुछ दिन नियमित आने के बाद शहर में ही एक कंपनी में नौकरी करने लगा था. 

भाग-2
कुछ देर और चलने के बाद मैं पुल पर पहुँच गया था. शाम हो रही थी, और अँधेरा घिर रहा था. अगस्त के महीने में, चन्द्रमा काले बादलों के बीच से धरती की तरफ निहार रहा था. पुल के दोनों तरफ लगी रेलिंग, के बीच-बीच में लगे खम्भों, में से एक-दो खम्भों के बल्ब की रोशनी, पुल पर छाए अँधेरे को कम कर रही थी. बत्ती की रोशनी, पुल के नीचे बह रही गोमती नदी के मटमैले पानी पर पड़ रही थी. यूँ तो इस साल औसत से कम ही बारिश हुयी थी, पर इतनी बारिश ने भी इस नदी को उसकी सीमायें तोड़ने की शक्ति दे दी थी. चूँ की यु.पी.- बिहार का यह इलाका "अन्धकार का क्षेत्र" माना जाता है, इसलिए इधर आस-पास के कई इलाकों में बाढ़ भी आई हुयी थी. पर जौनपुर में अभी यह परिस्थिति नहीं आई थी. हालाँकि गोमती का पानी उफान पर था.
पुल पर और भी लोग थे, कुछ रिक्शे वाले, दिन भर गधे की तरह खटने के बाद, अपने रिक्शे पर घोड़े बेच कर सो रहे थे. कुछ ठेले वाले थे, जो अपने ठेलों पर भुट्टे वगैरह बेच रहे थे.   स्ट्रीट लैम्प की धुंधली रोशनी में, पुल पर काफी संख्या में लोग उपस्थित थे. पर लोगों की भीड़ में भी मैं खुद को अकेला महसूस कर रहा था. मैं रेलिंग के सहारे नदी की तरफ मुह कर के खड़ा हो गया और नदी के मटमैले पानी को निहारने गया.स्ट्रीट लैम्प की रोशनी अभी भी नदी के पानी पर झिलमिला रही थी. नदी का वेग बहुत तीव्र था. कुछ देर तक नदी का पानी घूरते-घूरते मुझे भ्रम होने लगा की मैं टाइटैनिक सरीखे बड़े जहाज पर एकदम आगे खड़ा हूँ, और पुल-रूपी जहाज समुद्र में बड़ी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था. मटमैले पानी में कभी-कभी जल्खुम्भी का झुण्ड आ जाता था, और कभी कुछ अनजानी वस्तुएं बहती हुयी पास कर जाती थी. मैं नदी की सुन्दरता में पूरी तरह मोहित हो गया था की तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाँथ रखा, और मैं चिहुंक कर टाइटैनिक जहाज से सीधा सद्भावना पुल पर आ गिरा.
मैंने पीछे मुड़ कर देखा, ये अभिषेक था. और उसके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान थी. हाय-हैलो करने के बाद वो भी मेरी तरह पुल की रेलिंग के सहारे सड़क की तरफ मुह कर के खड़ा हो गया.
"और कैसे हो?" पहल सवाल उसी का था.
"मैं तो ठीक हूँ, तुम बताओ? तुम्हारी जॉब कैसी चल रही है." मैंने कहा.
"ठीक ही चल रही है भाई!" उसने कहा फिर हमारे बीच खामोशी ने जगह बना ली.
कुछ   देर खामोश रहने के बाद उसने कहा, "तुमने किसी को बताया तो नहीं की मैं जॉब कर रहा हूँ?"
वह प्रश्नवाचक दृष्टी से मेरी तरफ देख रहा था, मैंने कहा-"मुझे क्या गरज पड़ी है की मैं किसी से तुम्हारी चुगली करने जाऊ?" फिर कुछ देर सोच कर मैंने कहा, "यहाँ सभी ने कुछ न कुछ इंतज़ाम कर रखा है. पर कोई किसी से कुछ बताता नहीं, तुम मेरी तरफ से निश्चिन्त रहो."
फिर हम पुल पर आने-जाने वालों को देखते रहे.
"तुम्हे पता है, जिस कंपनी के शोरुम पर मैं काम करता हूँ,आज वहां एक औरत आई थी वह शादी-शुदा थी. शोरुम में घुसते ही, सीधे मेरे पास आई और बोली-'मुझे कुछ कपडे चेंज करवाने है?' पहले तो मैं थोडा सकपकाया, फिर मैंने उससे कहा-'कपडे  चेंज करवाने है तो आप ड्रेसिंग रूम में जाइये.' इस पर उसने कहा की-'आप समझ नहीं रहे है, मेरे जो वो है ना, वो मेरे लिए कुछ कपडे खरीद कर ले गए थे. पर वो कपडे मेरी साइज़ के नहीं है.' जब मैंने उससे कपडे दिखने को कहा तो पता है वो कौन से कपडे थे?"
"कौन से?" मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया.
"वो उसकी 'ब्रा' थी" फिर वो हसने लगा, और उसकी हसी में मैं भी हसने लगा. पर उसने कहना जारी रखा-"जब मैंने उससे पूछ- 'मैम! आपको इसमें क्या प्रॉब्लम है.'  तो वो जोर दे के बोली- 'अरे ये 34 नम्बर के है ना, और मेरी साइज़ 32 है.' "
मुझे उसकी बात सुन कर खिल-खिलाकर हसने को दिल हुआ, पर मेरी हसी का गुबार बस मुस्कान तक ही सिमट कर रह गया.
"बाद में उसने अपने कपडे बदलवाए और फिर जाकर गयी." उसने कहा और फिर वो हसने लगा.
यह उसकी बात करने की चिर-परिचित शैली थी. और उसकी हर बात में लड़कियाँ ही मुख्य किरदार होती थी. मुझे याद है की, एक बार मैंने उससे पूछा था- "तुम हमेशा लड़कियों की ही बात क्यूँ करते हो? ईश्वर ने संसार में और भी खूबसूरत चीजें बनायीं है, क्या वो चीजें तुम्हे आकर्षित नहीं करती?"
तो इसका जवाब में उसने कहा था- "लड़कियाँ ही तो इस सृष्टि की रचयिता है, पूरी रामायण और पूरी महाभारत लड़कियों को ही केंद्र में रख कर तो लिखी गयी है. तो फिर तुम्ही बताओ की ईश्वर की इस महत्वपूर्ण संरचना को छोड़ कर दूसरी खूबसूरत चीजों के बारे में बात करना, क्या उसकी बनायीं इस सर्वश्रेष्ठ कृति का अपमान करना नहीं होगा?"
और मुझे याद है की मैं निरुत्तर हो गया था.
"तो 'मीनल' का क्या हाल-चाल है?" मैंने बात को आगे बढ़ाते हुए उससे पूछा.
"ऐसे ही चल रहा है यार! पर वो बहुत भाव खाने लगी है. उसे शायद अपने ऊपर बहुत घमंड है." उसने अपना मुह बना कर कहा.
मीनल एक सुन्दर सी, सांवली सी, लड़की थी, जो हमारे साथ ही बी.टी सी. का प्रशिक्षण ले रही थी, जिसको अभिषेक ने हमारी क्लास के शुरुआती दिनों में ही प्रपोज कर दिया था.
"तो उसका घमंड उतारने के लिए तुम कुछ कर नहीं रहे हो?" मैंने कहा, "कभी उसको अपने साथ रूम पर ले जाओ?"
"अरे नहीं यार! सड़क पर दो कदम साथ चलने में तो उसे डर सताता रहता है की कही कोई उसे देख न ले. रूम पर क्या खाक आयेगी?" उसने तनिक खीझते हुए कहा.
"पर यार! रूम का जुगाड़ तो करना ही पड़ेगा." कुछ देर सोच कर उसने फिर कहा.
"जब मीनल तुम्हारे साथ नहीं आ रही तो रूम का क्या करोगे?" मेरे मन में उत्सुकता पैदा हुयी.
"रूम मुझे मीनल के लिए नहीं, 'आरती मैम' के लिए चाहिए." अभिषेक के चेहरे पर कुटिलता भरी मुस्कान तैरने लगी.
"कौन आरती मैम? वही जो फैकल्टी ऑफिस में बैठती है?" मैं चिहुंका.
"हाँ ! वही." वो मुस्करा रहा था.
"लेकिन ये सब हुआ कैसे और कब से?" मुझे उसकी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा था.
जिस आरती मैम की वो बात कर रहा था वो हमारे प्रशिक्षण केंद्र पर फैकल्टी थी. वो बहुत सुन्दर थी, लेकिन शादी-शुदा थी. हमारी क्लास के शुरुआती दिनों में अभिषेक अक्सर उनके केबिन में चला जाया करता था और घंटों वही बिताया करता था. अपनी वाक्पटुता की वजह से उसने सारी फैकल्टी में अच्छी-खासी जन-पहचान भी बना ली थी. वो अक्सर आरती मैम से हंसी-मजाक भी किया करता था पर  आरती मैम से उसका सम्बन्ध इस स्तर तक पहुँच जायेगा, ये मैंने सोचा भी नहीं था.
"पर यार! वो तो शादी-शुदा है?" मैंने थोडा सकुचाते हुए पूछा.
"तो उससे क्या हुआ? क्या शादी-शुदा महिलायों के पास दिल नहीं होता?" वो कहता जा रहा था और मैं उसे सुनता जा रहा था, "तुम्हे शायद नहीं पता होगा की उनका एक चार साल का बच्चा भी है."
उसकी बातें मेरे सिर के ऊपर से निकल रही थी. भला एक शादी-शुदा महिला, जिसका एक चार साल का बच्चा भी है, अपने पति को छोड़ कर किसी और पुरुष के पास क्यों जाएगी? और यहाँ तो ऐसा भी नहीं था की आरती मैम और अभिषेक के बीच में २-३ साल पुराना याराना रहा हो, ये खेल मुश्किल से २-३ महीने पहले शुरू हुआ था.
"अच्छा ये बताओआरती मैम के हसबैंड क्या करते है?" मैंने उससे आगे पूछा.
"वो इलाहबाद में सिविल सर्विस परीक्षा की तयारी कर रहे है." अभिषेक ने बताया.
"इसका मतलब ये हुआ की उनके हसबैंड ने उनमे दिलचस्पी लेना कम कर दिया होगा, तभी वो तुम्हारे पास आ रही है." मैंने उसकी बातों से निष्कर्ष निकालने की कोशिश की.
"हो सकता है. पर मैं पूरी तरह श्योर नहीं हूँ." अभिषेक ने कहा, पर मेरी जिज्ञासा बढती ही जा रही थी,और मैंने उससे सब-कुछ शुरुआत से बताने के लिए कहा.
"दरअसल जब हमारी क्लासे शुरू हुयी थी, तब मैं नियमित रूप से प्रशिक्षण केंद्र पर जाता था, और तुम तो जानते ही हो की मैं केवल चुनिन्दा लोगों से ही बात करता था, तुम उन्ही लोगों में से थे. कभी-कभार जब तुम नहीं आते थे, तो अपना टाइम पास करने के लिए मैं अक्सर आरती मैम के केबिन में चला जाया करता था. आरती मैम से बातचीत की शुरुआत भी एक संयोग ही था. वो मेरे साथ बहुत मजाक किया करती थी. एक दो बार बातें करते-करते मैं उनके रूप-रंग की तारीफ भी कर दिया करता था की-'मैम! आज तो आप बिलकुल 'माल' टाइप लग रहीं है' और वो झेंप जाती थी, कुछ दिनों बाद हमने एक-दुसरे का मोबाइल नंबर लेकर एक-दुसरे को 'एस.एम.एस.' भजने शुरू कर दिए. मैं तो उनको एक ही दो 'एस.एम.एस.'भेजता था, जिसके जवाब में 'एस.एम.एस.' की लाइन लगा देती थी. फिर उसके बाद मैं उन्हें बीच-बीच में नॉनवेज 'एस.एम.एस.' भेजने लगा. पर उन्होंने उसकी कभी शिकायत नहीं की. जिससे मेरे हौसला बढ़ा और एक दिन रात में जब मैं उनसे बात कर रहा था, तो मैंने उन्हें प्रपोज कर दिया."
"फिर?"
"बस, आरती मैम तो जैसे इसी बात का इंतज़ार कर रही थी. उन्होंने अपने सरे दुःख-दर्द मुझसे बयां करना शुरू कर दिए. कभी वो कहती थी की 'तुम जब रात को मुझे बात करते हो, तो मेरे सीने में हलचल होने लगती है, मन करता है की सब-कुछ छोड़ कर तुम्हारे पास चली आऊ.' फिर कभी वो अपने हसबैंड के बारे में बताने लगती थी, 'मेरे हसबैंड अब मुझमे कम इंटेरेस्ट लेने लगे है, शादी के बाद से दिन-प्रतिदिन उनका प्यार घटता ही जा रहा है, पर जब हमारी नयी-नयी शादी हुयी थी, वो हर हफ्ते मेरे पास आते थे, और मुझे भरपूर प्यार करते थे. लेकिन तब मेरी नौकरी नहीं लगी थी. पर मेरी शादी के कुछ दिनों बाद जब मेरी माँ का देहांत हुआ, तो उनकी नौकरी मुझे मिल गयी, क्यों की मेरी माँ अपनी नौकरी के कार्यकाल में ख़तम हुयी थी. और उसी के कुछ दिन बाद मुझे बच्चा  हुआ, बस तभी से उनका इंटेरेस्ट ही मुझमे ख़तम सा हो गया है.और अब तो वो महीनो-महीनो के अंतराल पर घर आते है. कहते है की परीक्षा के तयारी में अधिक समय देने की वजह से मुझे समय नहीं दे पा रहे है.' मुझे तो लगता है की मेरी नौकरी लग जाने की वजह से ही वो मुझसे जलन रखने लगे है."
अभिषेक की बातें अब मेरी समझ में आने लगी थी. "तो ये बात है;" मैंने हामी भरते हुए कहा, "तुम तो बहुत तेज निकले यार!"
"यही समझ लो;" अभिषेक ने कहा, "वैसे मेरा उनसे कोई इमोशनल अटैचमेंट नहीं है, वो ही मेरे ऊपर बहुत भरोसा जताने लगी है. क्यों की मैंने उनसे कहा, 'मैम, मैं पैसे तो मैं कमाता नहीं, मेरी तो नौकरी लगने में भी अभी बहुत टाइम बचा है. मेरे साथ आकर आपको क्या मिलेगा. मैं तो आपकी कोई जरुरत भी पूरी नहीं कर पाउँगा?' तो जानता है उन्होंने क्या कहा?"  
"क्या?"
"उन्होंने कहा की 'पैसों की चिंता तुम छोड़ दो, मुझे देखो मैं बत्तीस हजार रूपया कमाती हूँ हर महीने, तुम्हे जिस चीज की जरुरत हो, बोलना, मैं लाकर दूंगी. मुझे तो बस तुम्हारा साथ चाहिए' " अभिषेक मेरी ही तरफ देख रहा था.
फिर हमारे बीच कुछ देर खामोशी छाई रही, और हम पुल पर लोगों को आते जाते देखते रहे.
"तो इसीलिए तुम रूम खोज रहे हो." मैंने ख़ामोशी तोड़ने की कोशिश की.
"हाँ ! अगर तुम कुछ मदद कर सको तो बताओ?"
मैंने कुछ देर सोचा फिर कहा, "देखता हूँ, वैसे एक-दो लड़के है मेरी नज़र मे, जो रूम लेकर रहते है. उनसे बात करनी पड़ेगी, शायद कुछ बात बन जाये." मैंने आशा व्यक्त की.
हम अभी भी वही खड़े थे, और पुल पर आते-जाते लोगों को देख रहे थे. तभी अभिषेक का फ़ोन बजने लगा और उसने फ़ोन पर किसी से बात की. और फिर मुझसे बोला, "भाई! अभी मुझे घर निकलना होगा, माँ का फ़ोन आया था, उन्होंने तुरंत बुलाया है.बाद मे मिलते है...." कहकर वो जाने लगा, "रूम का जुगाड़ हो जाये तो जल्दी बताना" फिर वो चला गया.
मैं वही पुल पर काफी देर तक खड़ा रहा, और अभिषेक की बताई कहानी के बारे मे बार-बार सोचता रहा. फिर मुझे उबन होने लगी. मैंने घडी देखी, मुझे वहां आये एक घंटे से ऊपर हो गए थे, इस लिए मैंने घर वापस जाने वाले रास्ते पर अपने कदम बढ़ा दिए.
पर मेरे मन मे अभी भी वही कहानी तैर रही थी.

भाग-३
मैं घर वापस लौट आया और ड्राइंग रूम मे बैठा शाम की चाय पी रहा था, की मेरी दादी भी वही आ गयी. उन्होंने मुझे देखा और मैंने उनको देखा, और मुझे तुरंत ही यह अहसास हो गया, की उन्होंने मुझसे कुछ पूछा था, जिसका जवाब दिए बगैर मैं घर से बाहर चला गया था.
"कहाँ गए थे?" दादी ने पूछा.
"पुल की तरफ घूमने निकल गया था." मैंने कहा, और अपनी नज़रें दूसरी तरफ फेर लीं.
"तो क्या सोचा है तुमने?" उन्होंने फिर पूछा.
"किस बारे मे?" मैंने अनजान बनाने की कोशिश की.
"अरे उसी लड़की के बारे मे; जिसकी फोटो मैंने तुम्हे दिखाई थी. शादी के लिए हाँ कर रहे हो ना?" दादी ने कहा.
"...........?" मैं कुछ नहीं बोल पाया. मेरी समझ मे नहीं आ रहा था की क्या करूँ.
"ज्यादा सोचो मत, बस शादी के लिए हाँ कर दो, फिर जहाँ चाहो चले जाना, मैं तुम्हे नहीं रोकूंगी. तुम्हे जो करना हो करना, जो सपने साकार करने हो करना." दादी कहती जा रही थी. और मेरे मन मे अभिषेक की बताई कहानी घूम रही थी.
"सोच कर बताता हूँ.." मैंने बात को टालने की कोशिश की. फिर वहां से उठकर अपने कमरे मे चला आया, और बिस्तर पर धडाम हो गया.
मेरे आँखों के सामने बार-बार अभिषेक का मुस्कराता हुआ चेहरा आ जाता था, उसकी बताई आरती मैम की कहानी बार-बार मन मे घूम रही थी, और मैं खुद को आरती मैम का हसबैंड समझने लगा. और इसका अंदाज़ा लगा कर मेरी रूह काँप गयी.
मैं अपने कमरे मे लेटा रहा. लगा की जैसे अभिषेक ने मेरा भविष्य कुछ देर पहले मुझे बता दिया हो...... 

जितेन्द्र गुप्ता