Monday, September 9, 2013

'एक अधूरी कहानी'

कुछ घटनाएँ हमारी जिंदगी में घटित ही इसलिए होती है, ताकि वो हमें एक अहसास दे सकें, जिसकी यादें, हम अपनी सारी जिंदगी, अपने दिल के किसी कोने में बेहद सहेज कर साथ रखे रहे. जब की वो घटना अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाती है, ताकि किसी और को वही अहसास दे सके.
मेरे साथ जब वो घटना घटित हुयी, तब मैंने उस शख्श को और उसकी यादों को भुलाने की बहुत चेष्टा की थी, पर उस वक़्त तक ऐसा था की मानो वो शख्श और वो घटना मेरे दिलोदिमाग से चिपक सी गयी थी, और उसको भुलाने की मेरी सारी कोशिशें व्यर्थ साबित हुयी थी. आज, जब की उस घटना को बीते हुए बहुत वक़्त गुजर गया है, और वो शख्श मेरी जिंदगी का एक भुला हुआ अध्याय हो चुका है, तो जब मैं पीछे मुड़ कर उन घटनाओं पर नज़र डालता हूँ, तो वो मुझे अनुभवों से भरा दिखता है.
मेरे कॉलेज के दिनों को बीते हुए 5-6 वर्ष गुजर चुके है, और इस दौरान मैं रोजमर्रा की जिंदगी में इतना व्यस्त हो चुका हूँ, की मुझे उसका ख्याल कभी-कभार ही आता है. पर इन्ही व्यस्तताओं के बीच जब मुझे अपने लिए कुछ वक़्त मिलता है, तो मेरे मन में उसको लेकर एक ही सवाल कौंधता है- "कभी-कभार ही सही, क्या वो भी मेरे बारे में सोचती होगी जैसे की मैं उसके बारे में सोचता हूँ?" और जब मेरे मन में ये प्रश्न उभरता है, तो कॉलेज के अंतिम दिनों की यादें भी उभर आती है, फिर मुझे ऐसा लगने लगता है की जैसे ये अभी कल की ही घटना हो.
मुझे उस दिन के, वो आंसू याद है, जो की उसकी खुबसूरत आँखों से बह रहे थे, जिस दिन हम सभी अपने कॉलेज से विदा हो रहे थे. गर्ल्स हॉस्टल के सामने, मैं, उसके घर से उसको लिवा जाने के लिए आयी हुयी उसकी कार के बगल में, खड़ा था. जब वो गेट से बाहर निकल रही थी, तो मैंने उसकी आंखे देखी थी. एक पल के लिए हमारी नज़रें एक-दुसरे से उलझ गयी थी और उस एक क्षण के लिए वक़्त मानो थम सा गया था. मैं अपने कॉलेज के गुजरे तीन सालों की यादों में खोता गया था, इस वास्तविकता से बेखबर की यह हमारे कॉलेज का अंतिम दिन था और मैं उसको वहां अंतिम बार देख रहा था.
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उसका नाम 'पूर्णिमा' था, और वो एक जवान खुबसूरत लड़की थी. उम्र यही कोई बीस के आस-पास रही होगी, जब की उसने मेरे साथ ही कॉलेज में दाखिला लिया था. 'मैं उसको पहली बार देखते ही प्यार में पड़ गया था'- हमारे बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था क्यों की कॉलेज के शुरुआती 3-4 महीनो तक हम एक-दुसरे के लिए अजनबी ही बने रहे.  
उसके-मेरे बीच की दूरियां घटनी तब शुरू हुयी थी जब हमारी पहली छमाही की परीक्षाओं के रिजल्ट घोषित हुए, जिसमे की वो अच्छे अंको से पास हुयी थी जब की मैंने अपनी क्लास में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये थे और मेरी क्लास के मेरे साथी मुझे बधाइयाँ दे रहे थे. कुछ मुझसे पार्टी लेने की जिद कर रहे थे. पहले तो मैंने उन्हें मना करना चाहा था, पर उन लोगों की इच्छा के आगे मुझे झुकाना पड़ा, और मुझे कॉलेज के ही कैफेटेरिया में उन्हें पार्टी देनी पड़ी. क्लास के हर एक व्यक्ति को मैंने पार्टी में आमंत्रित किया जिसमे पूर्णिमा भी शामिल थी.
पार्टी चल ही रही थी जब पूर्णिमा मेरे पास आयी, और परीक्षाओं में मेरी सफलता के लिए उसने मुझे बधाई दी. यह सिर्फ मैं ही नहीं था बल्कि मेरे साथ के अन्य लड़के भी थे जो उस घटना के गवाह बने थे जिसमे बधाई के शब्दों के साथ कुछ अनकहे शब्द भी थे. जैसे 'प्यार छुपाये नहीं छुपता' वैसे ही उसकी आवाज़ में प्यार की गर्माहट भी थी, जो की दुनिया को स्पष्ट जाहिर हो रहा था, जब की वो अपनी भावनाओं को छुपाने की असफल कोशिश कर रही थी.
मुझे नहीं लगता की कोई भी भारतीय लड़की किसी लड़के के सामने अपने प्यार का इजहार करने का पहला कदम उठाती होगी, भले ही वो उसके प्यार में पागल ही क्यों न हो. यह शायद भारतीय लड़कियों को ईश्वर की तरफ से दिया गया उपहार है. जब की ये जिम्मेदारी लड़कों को ईश्वर ने सौंप दी है. उस शाम, जब मैं अपने हॉस्टल पहुंचा, मेरे सारे दोस्त मेरे और पूर्णिमा के बारे में बाते करके मेरी मौज लेने लगे. हालाँकि मेरा मन सातवें आसमान पर छलांगे लगा रहा था; पर ऊपर ही ऊपर से मैं उन्हें ये जताता रहा की मुझे पूर्णिमा को लेकर हो रही बातों से कोई सरोकार नहीं था.
हॉस्टल में मैं राहुल के साथ रहता था, जो एक नंबर का प्लेबॉय था. वो एक साथ तीन-चार लड़कियों को हैंडल करने में एक्सपर्ट था. पिछले छह महीनो से साथ रहते हुए हम एक-दुसरे से बहुत घुल-मिल  गए थे. वो मुझे अपनी हर गर्ल फ्रेंड के बारे में बताता था की कैसे उसने उन्हें पटाया और फिर उनके साथ हमबिस्तर हुआ. वो जो दुनिया देख चुका था, हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे इसलिए उसकी बातों को बहुत ही इंटरेस्ट के साथ सुनते थे और रात में सपने देखते थे. हमारी क्लास में ही ज्योति नाम की लड़की भी थी, जो की क्लास के शुरुआती दिनों में ही राहुल की अच्छी गर्ल फ्रेंड बन गयी थी. राहुल ने ज्योति को पूर्णिमा के दिल की बात पता करने को कहा. ज्योति ने ये काम सिर्फ दो दिनों में ही कर दिया. 
उस शाम राहुल ने मुझे पूर्णिमा के दिल की बात बताई थी- "वो तुम्हारे प्यार में पागल हो चुकी है, और अब उसे इंतजार है तो बस 'तुम कब उसे प्रपोज करोगे?'" मुझे याद है, राहुल के इन शब्दों ने मुझ पर जादू का सा असर किया था. अचानक ही दुनिया, मुझे पहले से ज्यादा खुशनुमा लगने लगी थी; प्रकृति पहले से भी ज्यादा हरियाली से भरी; और उदास चेहरों के उदासी के पीछे कोई कारण नहीं नज़र आ रहा था. इसके पहले मुझे ऐसा अहसास कभी भी नहीं हुआ था. और एक अनपढ़ भी समझ सकता था की ये पहले प्यार की भावनाए है. जब आपको पता चलता है की कोई आपको दिल से चाहता है और आपके ख्यालों के समुंदर में हर वक़्त डूबा रहता है, तो आप खुद को बहुत ही स्पेशल मानने लगते है. लेकिन अभी तक तो मैंने उसे प्रपोज नहीं किया था, और ये ऐसा काम था जिसे हर लड़के को खुद ही करना पड़ता है. मैं चाहता तो ज्योति को अपना मेसेंजर बना सकता था और वो यह काम करने को स्वयं प्रस्तुत थी, लेकिन मैंने तय कर लिया था की पूर्णिमा को मैं खुद ही प्रपोज करूँगा.
वो अप्रैल का महीना चल रहा था, और मौसम रात के वक़्त कुछ-कुछ ठंडा, दिन के वक़्त कुछ-कुछ गर्म होने लगा था. मेरे दिमाग में हलचल मचनी शुरू हो गयी थी. 'मैं उसे कैसे प्रपोज करूँ?' यह एक ऐसा सवाल था जो की मैं पूरे दिन सोचता रह जाता था. "क्या मुझे सबके सामने भरी क्लास में उसे प्रपोज करना चाहिए जैसा की हिंदी फिल्मो में अक्सर दिखाता है? और अगर सबके सामने ही उसने मुझे मना कर दिया तो? क्लास के सारे लड़के मुझ पर हँसेंगे और मैं मजाक का पात्र बन कर रह जाऊंगा. अच्छा यही होगा की मैं उसे किसी ऐसी जगह प्रपोज करूँ, जो दिन में भी वीरान रहती हो, ताकि अगर वो मेरा प्रपोजल अस्वीकार भी करे तो क्लास में किसी को पता न चले. एक तरह से सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे!" 
दिन में लंच ऑवर में क्लास लगभग खाली हो जाती थी, और ज्यादातर लड़के-लड़कियां कैंटीन चले जाते थे. लेकिन पूर्णिमा अपना टिफिन लाती थी इसलिए कैफेटेरिया वो कभी-कभार ही जाती थी. मैंने तय किया की मैं उससे लंच ऑवर में ही बात करूँगा.
सुबह से लेकर दोपहर तक, मेरी धड़कने घोड़े के रफ़्तार से दौड़ रही थी. क्लास में टीचर्स आते और पढ़ा कर चले जाते थे. पर मेरा मन उस दिन क्लास में नहीं लग रहा था. क्लास के बीच-बीच में मेरी नज़रे पूर्णिमा की तरफ घूम जाती थी, "क्या ये वही लड़की है जिससे मैं वास्तव में प्रेम करना चाहता हूँ?" यह सवाल मेरे मन में कौंधता था और इसका जवाब मुझे तब मिल जाता था जब वो भी मेरी ही तरह मुझे घूम-घूम कर देखती रहती थी. लग रहा था की जैसे हम एक-दुसरे से लुका-छिपी का खेल खेल रहे हो. अब मुझे बस लंच ऑवर का इंतजार था.
लंच ऑवर भी जल्दी ही आ गया. और कुछ को छोड़ कर, ज्यादातर लड़के-लड़कियां कैफेटेरिया जा चुके थे. पूर्णिमा के पास जाने से पहले मैं क्लास की खिड़की के पास गया, ताकि मैं कुछ आशावादी बन सकूँ और इस काम को अंजाम देने का साहस जुटा सकूँ. हालाँकि मन में अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हुयी थी. 'कही राहुल ने मुझे, उसकी भावनाओ के बारे में गलत जानकारी ना दे दी हो? लेकिन आज सुबह से पूर्णिमा की आंखे मुझसे झूठ नहीं बोल रही थी. वो मुझसे प्यार करती है!!! मैंने अपने मन में यह बात बैठा ली और मन में आ रही नकारात्मक भावनाओं को दरकिनार किया. मैंने उसकी तरफ कदम बढ़ा दिए, और मुझे ऐसा लगा जैसा वो मेरा ही इंतजार कर रही थी.
लड़कों की पांचो इन्द्रियां मिल कर भी, लड़कियों की छठी इंद्री का मुकाबला नहीं कर सकती और ये छठी इंद्री इतनी शक्तिशाली होती है की ये लड़कों को इंद्री-विहीन बना देती है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था. मैं पूरी तरह इन्द्रिय-विहीन हो चुका था और मैंने प्यार के महासागर में छलांग लगा दी.
"हाय!" मैंने उससे पहली बार कुछ कहा था.
"हाय!" वह थोड़ा चकित होते हुए बोली. (लड़कियां ऐसी ही होती है.)
"हाउ डू यु डू?" मैंने एक और सवाल किया.
"फाइन!" उसकी बातों से अजनबीपन झलक रहा था. 
मैं उससे बात करते हुए उसकी आँखों में देख रहा था, और उसकी आँखों की गहराई में इस कदर खो गया था की मुझे यह याद ही नहीं रहा की अब उससे आगे क्या बात करनी है? मैं भूल गया था की मैं अपनी क्लास में बैठा हूँ, और आधे घंटे का लंच ऑवर अब समाप्ति के कगार पर था. क्लास में काफी लोग भी इकट्ठे होना शुरू हो गए थे. पर उन सब से बेखबर मैं पूर्णिमा के बगल वाली कुर्सी पर बैठा रहा.
"मैं तुमसे अपने मन की एक बात बताना चाहता हूँ." मैंने कहा.
"एक बात?" उसने दुहराया.
"हाँ एक बात! या मेरे मन की एक फीलिंग्स है तुम्हारे लिए." 
"ओह!.........बताओ." उसने मुझसे पूछा.
वो मुस्करा रही थी जब की मैं भावनात्मक तनाव के कगार पर खड़ा था. मेरी धड़कने, जो पहले घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रही थी, अब टाइम मशीन की रफ़्तार से दौडने लगी थी.
"आज कल पता नहीं क्यों मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है." मैंने सीधे शब्दों में उसे अपने मन की बात बता दी थी.
वह कुछ पल के लिए खामोश हो गयी थी; जैसे की वो भी सोच रही हो की 'क्या कहा गया था?' और 'इसके जवाब में क्या कहना चाहिए था?' मुझे याद है की उस समय केवल मैं ही नहीं था जिसे अपने आस-पास खड़ी भीड़ की कोई फिक्र नहीं थी बल्कि वो भी उसी बेफिक्री में शामिल थी. हम दोनों एक-दुसरे की आँखों में खो गए थे. शायद प्यार में ऐसा ही होता है 'सर्वाधिक शर्मीला व्यक्ति भी, प्यार में पड़ने के बाद थोडा बेफिक्र हो ही जाता है और उसे अपने आस-पास के माहौल की कोई खबर नहीं रहती.'
लंच के बाद हमारी प्रैक्टिकल क्लास शुरू होने वाली थी और हम पहले से ही उसके लिए देर हो चुके थे. पूर्णिमा को दूसरी लड़कियां साथ में चलने के लिए बुला रही थी. वो मुझे बिना कोई जवाब दिए ही चली गयी. मैंने भी जल्दी की और प्रैक्टिकल क्लास में पहुंचा. उस दिन बायलोजी के प्रैक्टिकल की जगह, हम पूरे क्लास के दौरान एक-दुसरे को निहारते रहे. जैसे की हम एक-दुसरे पर प्रैक्टिकल कर रहे हो. शाम को प्रैक्टिकल की क्लास ख़तम होने के बाद, मैं, कॉलेज बस में, उसकी बगल में ही बैठ कर हॉस्टल वापस आया था. बस में, मेरी बाहें, उसकी बाँहों से स्पर्श कर रही थी. मुझे उसकी बाँहों की कोमलता और गर्मी का अहसास काफी दिनों तक याद रहा. उस दिन उसने मुझे अपने मोबाइल नंबर दिया, और कहा की 'जब भी तुम्हारी इच्छा हो मुझे फ़ोन कर लेना.'
मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. उस दिन के बाद कुछ दिनों तक मैं लोगों से नज़रें नहीं मिला पा रहा था, और मैं उस दुल्हे की शरमा रहा था, जो अभी-अभी अपनी शादी के बाद की पहली रात गुजार कर बाहर निकला हो. पहले प्यार की वो कोमल भावनाएं शुरुआत के एक साल तक बनी रही. उस वक़्त लगता था की जिंदगी कितनी मस्त है. उसका फ़ोन नंबर मिलने से जैसे हमारे बीच दूरियाँ ख़त्म सी हो गयी थी. फ़ोन पर हर रोज़ उससे घंटो बात करना मेरी आदत बन गयी थी. हमारा रिश्ता दोस्ती से काफी बढ़कर था, लेकिन पति-पत्नी वाली बात अभी भी नहीं थी. जिस दिन वो कॉलेज नहीं जाती थी, मैं भी कॉलेज से बंक मार लेता था. शायद हम एक-दुसरे को सहना सीख रहे थे.
कभी वो मुझ पर हावी होती थी, तो कभी मैं उस पर हावी रहता था, पर दोनों एक-दुसरे की जरुरत थे. मेरी आदत हो गयी थी, हर शाम मैं अपने रूम की छत पर बैठ जाता और उससे फ़ोन पर बात करता था, मैं उसे 'किस' (चुम्बन) करने को कहता और वो मुझसे 'किस' करने को कहती. हमारे कॉलेज के दुसरे साल तक यही हमारे प्यार का चरमोत्कर्ष था. मैं उससे बात करता रहता और शाम के आकाश को देखता रहता था. सूरज दूर क्षितिज पर अस्त हो रहा होता था, पक्षिओ के झुण्ड अपने-अपने घरौंदों की तरफ लौट रहा होता था. मैं उन पक्षिओं के झुण्ड द्वारा बनायीं गयी आकृतियों को देखता रहता था, जैसे की आकाश कोई सफ़ेद चादर हो और किसी कलाकार ने अपनी कला पूरे कैनवस पर बिखेर दी हो. कुछ देर में जब अँधेरा घिर जाता, और आकाश के मुंह पर कालिख पुत जाती तो उसका दाग धोने के लिए जैसे आसमान में तारे उग आते और टिमटिमाते रहते. और इस सब के दौरान प्रकृति इतनी शांत रहती जैसे की वो हमारा साथ दे रही हो. उस वक़्त तक, इसी तरह, हर रोज़, मेरे दो-तीन घंटे बीत जाते थे और मैं अपने रूम में वापस आ जाता था.
ना केवल मैं कुंवारा था, बल्कि वो भी कुंवारी ही थी. विज्ञानं के शब्दों में अगर मैं धनात्मक आवेश था तो वह ऋणात्मक और हमारे बीच आकर्षण स्वाभाविक था. मैं अक्सर उसके पास रहने की कोशिश करता, लेकिन वो हमेशा मुझसे एक अनजानी दूरी बनाये रखती थी. शायद वो भी आम भारतीय लड़कियों की तरह "टच मी नॉट सिंड्रोम" से ग्रसित थी और उसका ये बर्ताव मुझे हतोत्साहित कर देता. इन्ही जैसे कुछ कारणों से हमारे बीच रूठने-मनाने का सिलसिला चल पड़ता था. सुबह से शाम तक कॉलेज में बिताने के बाद हमें मौका नहीं लग पता था की हम कही फिल्म देखने सिनेमा हाल चले जाये; या किसी रेस्तरां हो आये.
इस दौरान मैं उसका इतना आदी हो गया था जैसे की वो कोई रोमांचक उपन्यास हो, और मैं उसका अंतिम पन्ना पढ़ रहा होऊ, जहा से उपन्यास ख़तम करके ही छोड़ा जा सकता है. पढाई तो जैसे परीक्षाओं के दौरान ही होती थी, बाकि सारा वक़्त मैंने पूर्णिमा के नाम लिख दिया था और वो मेरे दिलोदिमाग पर छा सी गयी थी.
वक़्त अपनी रफ़्तार से गुजरता रहा और हमारे कॉलेज के दो साल ऐसे बीत गए की मुझे पता ही नहीं चला. हमारे सामने हमारा तीसरा और अंतिम साल बचा था. इसी दौरान आई एक खबर ने मुझे झंकझोर कर रख दिया. पूर्णिमा के पिता जी ने उसकी शादी तय कर दी थी. मुझे आज तक नहीं समझ में आया की मुझे ऐसी खबर पर रोना चाहिए था या ख़ुशी से नाचना. एक ऐसे इन्सान द्वारा तब क्या किया जा सकता है जब उसकी गर्ल फ्रेंड की शादी किसी और से तय कर दी गयी हो. मुझे नहीं लगता की प्यार की ऐसी अवस्था की दुविधा दूर करने के लिए दुनिया में कोई किताब लिखी गयी होगी.
मेरे लिए पूर्णिमा एक ऐसी पहेली बन चुकी थी जिसको की मैं आज तक नहीं सुलझा सका. आज भी कभी-कभार मैं सोचता हूँ, की वो अपनी शादी से खुश थी या नही? क्योकि जब कभी मैं उससे अपने संबंधो के बारे में बात करता तो वो यही कहती, की वो मुझे प्यार करती है. लेकिन बात जब शादी की होती तो वो हमारी किस्मत को दोष देने लगाती थी. उसने तो जैसे यह वाक्य रट लिया था-"शायद हमारी किस्मत में यही लिखा था." यद्यपि मैंने उसे कभी भी शादी करने का प्रस्ताव नहीं दिया, इसके पीछे कारण था की उस वक़्त तक मेरी उम्र इतनी कम थी की मैं शादी जैसी बड़ी जिम्मेदारी के बारे में सोच नहीं सकता था. शायद मुझे और वक़्त चाहिए था, क्यों की मैं उसके लिए पागल भी था, और उसको खोना भी नहीं चाहता था. लेकिन वक़्त मेरे साथ नहीं था और शायद यह भी पहले से तय था की हम दोनों एक दुसरे के लिए नहीं बने थे. मुझे लगता है की मैं खुद ही इस मुद्दे पर तटस्थ हो गया था क्यों की उसके द्वारा मुझे अपनी शादी पर आमंत्रित करने के बावजूद मैं उसकी शादी में नही गया. सारी रात मैंने रूम में जागते हुए काट दी और उस दिन पहली बार मेरी आँखों से आंसू गिरे थे. उसने शादी कर ली और मैं उसका मुंह देखता रह गया, जैसे की मुझे किसी ने प्रयोग करके छोड़ दिया हो. मेरे दिल में ये कसक दबी रह गयी की मैं एक लड़की को नहीं संभाल सका.
एक कहावत है, "वक़्त सरे जख्मों को भर देता है." लेकिन मेरा घाव अभी भी नहीं भरा था. मैं उन मौकों की तलाश में रहता की कैसे अपने जख्मों को कुरेंद दूँ, और उन्हें फिर से हरा कर दूँ. कभी कभार प्यार में धोखा खाया इन्सान पहले से ज्यादा आत्मघाती हो जाता है. यही अवस्था मेरी थी.
गर्मियों के उमस भरे दिन थे. आकाश में बदल छाए थे और सूरज उसके बीच में से झांक रहा था. मैं सड़क पर आवारा लोगों की तरह घूमता रहता और कुछ भी सोचना बंद कर दिया था. उन्ही दिनों, ज्योति, जो की मेरी इस परिस्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थी, ने मुझे बताया की पूर्णिमा ने बाकायदा अपने शादी की प्लानिंग की थी और कॉलेज से एक महीने की छुट्टी भी ले ली थी. उसकी बातों से मेरे संदेह के बादल छट गए थे. 'वो अपनी शादी से बहुत खुश है और उसे मुझमे अब कोई इंटरेस्ट नहीं है.' मेरे मन में यही बातें घूम-घूम कर उभरती. इन सबके अलावा मेरे मन में जो बात सुई की तरह चुभ रही थी वो था उसका व्यवहार. शादी के बाद लगभग एक महिना गुजरने के कगार पर था लेकिन उसका ना तो कोई मेसेज आया और ना ही कोई फ़ोन. 'क्या वो मुझे भूल गयी है?', 'कोई किसी को इतनी जल्दी कैसे भूल सकता है?' मैं खुद से ही इतना क्रोधित था की मैं सारी कहानी को ही ख़त्म कर देना चाहता था, जिसको की खुद मैंने शुरू किया था, और अब जो खुद मुझे ही अन्दर ही अन्दर से खाए जा रही थी.
अपना हनीमून ख़त्म करके जिस दिन वो कॉलेज वापस लौटी, क्लास की सारी लड़कियों ने उसे इस तरह घेर लिया था जैसे की वो कोई 'सेलेब्रिटी' हो और वो सब उसका ऑटोग्राफ लेने के लिए खडी हो. लेकिन लड़कियां ऐसी ही होती है, वो नयी नवेली दुल्हन बनी लड़की के बारे में, और उसके पति के बारे में, उसके ससुराल के बारे में और उस हर चीज के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहती थी जो की उसकी शादी से जुड़ा था. मुझे याद है की उसे इस ख़ुशी में देख कर मुझे यह अहसास हो गया था की मैं कोई भुला हुआ अध्याय हो चुका था. वो क्लास की लड़कियों से बात करने में इतनी व्यस्त हो चुकी थी की उसे पता भी नहीं चला की मैं उससे कुछ दुरी पर खड़ा हूँ. मैं उसे अभिलाषा भरी नज़रों से तब तक देखता रहा, जब की उसने भीड़ में से नज़रे उठा कर मुझे नहीं देख लिया. जब उसने मुझे, खुद को घूरते हुए पाया तो उसने अपनी बातचीत वही रोक दी. मैं समझ गया था की मेरा काम हो गया था. इसके बाद मैं कैफेटेरिया चला गया. कुछ देर बाद मुझे खोजते हुए वो भी वही पहुँच गयी.
वह मेरे सामने खड़ी थी, और मैं उसको एक महीने के अन्तराल के बाद देख रहा था. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे की मैं उसके सामने अभी भी बच्चा था, और वो काफी परिपक्व हो चुकी थी. उसकी मांग में सिन्दूर की लकीर थी, माथे पर छोटी सी बिंदिया, होंठो पर लाल रंग की लिपस्टिक, कानो में बालियाँ तथा हाथों पर सुन्दर मेहंदी थी. वह जब भी इधर-उधर चलती तो उसकी कलाइयों की चूड़ियाँ और पैरों की पायल किसी संगीत की धुन की तरह बज उठते थे. मैंने अभी तक उसको इस रूप में नहीं देखा था, इसलिए भारतीय कुंवारी लड़कियों और भारतीय विवाहित लड़कियों के बीच का अंतर मुझे स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.
"कहाँ खोये हुए हो?" उसने तनिक मुस्कराते हुए कहा.
उसके इस प्रश्न ने, मेरी नज़रों को, उसके शरीर में हुए और बदलावों को खोजने से रोक दिया.
"तुम पहले से ज्यादा तंदरुस्त दिख रही हो." मैंने कहा. वास्तव में मैं उससे उसके व्यवहार के बारे में बात करना चाहता था, लेकिन उसकी व्यवहारगत गर्मजोशी से गच्चा खा गया. मुझे लगता है की प्यार में अक्सर ऐसा होता है, 'आपके प्रेमी के सामने आते ही आपका गुस्सा काफूर हो जाता है.'
"हाँ! मैं पहले से ज्यादा खाने लगी हूँ, और मुझे डर लग रहा है की कही मैं मोटी न हो जाऊ?" उसने कहा.
"तो तुम्हारी शादी कैसी रही?" मैंने आगे पूछा हालाँकि मैं उसकी शादी में इंटरेस्टेड नहीं था.
"बहुत अच्छी थी. लेकिन तुम आये ही नहीं? मुझे आशा थी की तुम आओगे." उसने कहा.
मैं निरुत्तर था लेकिन मुझे इस मुद्दे पर बात करना निरर्थक भी लगा इसलिए मैंने उसकी बातों को मोड़ने की कोशिश की, "तुम्हारे पतिदेव कैसे है?"
"ओह! वह तो बहुत अच्छे है, मेरा बहुत ख्याल रखते है." उसने उत्तर दिया.
"अच्छा है." मैंने भी उसकी बातो में सुर मिलाया.
"तो पढाई के बाद क्या सोचा है? मतलब क्या करोगी?" मैंने उससे आगे पूछा.
"मैंने कुछ सोचा नहीं है; जो कुछ भी वो कहेंगे वैसे ही करुँगी." उसने कहा.
'यह एक अन्य लक्षण है जो की भारतीय विवाहित महिलाओं में पाया जाता है.' मैंने सोचा. 'पतिदेव के इच्छा सर आँखों पर; ना कोई विवाद, ना कोई बहस.'
"क्या तुम अपनी शादी की फोटोग्राफ्स भी लायी हो?" मैंने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाना जरी रखा, यद्यपि उसकी बातों से मैं 'बोर' हो रहा था.
"हाँ! लायी हूँ; क्या देखना चाहोगे?" वह मुझसे पूछ रही थी.
और फिर वो मेरे जवाब का इंतजार किये बगैर ही अपने बैग में से शादी का एल्बम निकल कर दिखाने लगी.    
मैं उसकी शादी की तस्वीरें देखता रहा. हर तस्वीर में उसका मुस्कराता हुआ चेहरा नज़र आ रहा था. उन्ही तस्वीरों में से एक तस्वीर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. वह उसकी शादी के ठीक पहले की तस्वीर थी. इसमें वो अपने घर के किसी कोने में बैठी हुयी थी, एक साधारण सी सलवार-कमीज़ पहने हुए. उसकी नज़रे सामने की तरफ, मुझे ही देख रही थी और चेहरा बिना किसी भावों के हलकी उदासी से भरा था. तस्वीर से यह साफ था की उस वक़्त उसकी 'हल्दी की रस्म' हुयी थी. मैंने उससे वो तस्वीर ले ली. हालाँकि वो मुझे मना कर रही थी, "अरे! उसमे मैं कितनी गन्दी और भद्दी दिख रही हूँ." वह कह रही थी पर मैं नहीं माना. मैंने उससे वो तस्वीर शायद इसलिए ली थी क्यों की वो उसमे अकेली थी, उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसमे नहीं था. और सबसे बढ़कर उसके चेहरे के भाव मुझे मेरी ग़लतफ़हमी ('की वो अभी भी मुझे प्यार करती है; और अपनी शादी से खुश नहीं है.') को जिन्दा रखने के बढ़िया साधन लगे. 
फोटो सेशन ख़तम होने के बाद मैंने उससे शादी की पार्टी देने के लिए कहा. पहले तो उसने ना-नुकुर किया, लेकिन कभी-कभार अपने प्यारे पुराने दोस्तों को मना करना बहुत कठिन हो जाता है इसलिए उसने मेरी इच्छा पूरी करने की हामी भर दी. यह एक प्राइवेट पार्टी होने वाली थी; केवल वो और मैं, उसने मुझे भरोसा दिया. जब कॉलेज ख़तम हुआ तो हमने एक ऑटोरिक्शा किया और रेस्तरां की तरफ बढ़ चले.
शायद एक नयी कहानी वहां हमारा इंतजार कर रही थी, जिससे की हम दोनों ही अनजान थे. ऑटोरिक्शा भीड़ भरी सड़क में से तेजी से दौड़ता जा रहा था. सड़क पर हर गाड़ी एक-दुसरे को पीछे करने की फिराक में थी. ऑटो में केवल हम दोनों ही थे, एक-दुसरे की आँखों में खोये हुए और बाहर सड़क पर गुजर रही भीड़ से अनजान. कुछ पल के लिए हम दोनों ये भूल गए थे, की पूर्णिमा अब शादी-शुदा थी. मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले रखा था और उसकी हाथों की गर्माहट महसूस कर रहा था. शायद वो हमारे प्यार की तीव्रता ही थी की हम ऑटोरिक्शा में ड्राईवर की उपस्थिति भूल गए थे.
"क्या तुम अभी भी मुझसे प्यार करती हो?" मैंने उससे सीधा सा सवाल किया. मैं इसका जवाब जानना चाहता था.
"मैं तुमसे प्यार करती हूँ;......." वह कहते-कहते रुक सी गयी थी. "........लेकिन क्यूँ की अब मैं मेरी शादी हो चुकी है, तो हम दोनों के लिए अच्छा यही होगा की तुम मुझसे ज्यादा अपेक्षाए ना रखो." उसने अपनी बात पूरी कर दी थी.
मेरे मन में उमड़ रहे संदेह के बादल अब छटने लगे थे. शाम हो चली थी, और सूरज अपने पीछे आकाश पर गहरी लालिमा छोड़ कर अस्त हो चुका था. मैं शायद अपने जीवन के अंतिम रोमांटिक सफ़र को महसूस कर रहा था. जब हम रेस्तरां पहुंचे तो हमने ऑटो को छोड़ दिया और अन्दर चले गए. मुझे याद नहीं की उसने क्या आर्डर किया, और हमने कितना वक़्त वहां गुजारा. वह ठीक मेरे सामने बैठी थी और उसके पीछे एक अक्वेरियम रखा हुआ था, जिसमे रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थी. मुझे उन मछलियों के नाम नहीं पता थे, लेकिन उनका आकार-प्रकार आज भी दिमाग में जीवंत सा है. 'ये अपने जीवन का आनंद ले रही है.' मैं उन मछलियों के बारे में सोच रहा था, जब की मेरी अवस्था पानी से बाहर छटपटा रही मछली के जैसी हो गयी थी. "ये मछलियाँ भी मुझसे अच्छी अवस्था में है." मुझे अहसास हुआ.
रेस्तरां में उसने मुझसे जो कुछ भी कहा, शायद अब उसका कोई मूल्य नहीं रह गया था क्यों की मैं, हमारे संबंधो को ख़तम करने की रस्म निभा रहा था और उसकी चिता तैयार कर रहा था. वहां कुछ समय गुजारने के बाद हम बाहर निकल आये, ऑटोरिक्शा किया और हॉस्टल की तरफ लौट चले. एक बार फिर हम ऑटो में अकेले थे, बाहर अँधेरा घिर चुका था, जिससे अन्दर भी काफी अँधेरा हो गया था. हमारी सीट के पीछे ऑटोरिक्शा में एक छोटी सी खिड़की लगी हुयी थी. पीछे से आ रही गाड़ियों की सुनहरी पीली रोशनी, उसके चेहरे पर बिखरी हुयी थी. इतने करीब, इससे पहले हम शायद ही कभी आये थे. मुझे अचानक भ्रम होने लगा की कहीं मैं किसी और के साथ तो नहीं बैठा हूँ. 'करीब से देखने पर जाने-पहचाने चेहरे भी अक्सर बदल जाते है.' यह इसी का प्रभाव था. मैं उस खूबसूरत धोखे में मिट जाना चाहता था. मैंने उसे 'किस' किया, उसने मुझे 'किस' किया. मैंने उसकी उभरी हुयी गोलईयों को महसूस करने की कोशिश की. जब तक ऑटो चलती रही, हम दोनों एक-दुसरे की बाँहों में पड़े रहे. हम, सड़क से आ रहे शोर के बीच-बीच में चिल्ला रहे सन्नाटे की आवाज़, सुनते रहे. सड़क पर अभी भी तरह-तरह की गाड़िया वक़्त से 'रेस' लगा रही थी.
यह पूर्णिमा के साथ गुजरा मेरा अंतिम दिन था, उसके साथ ऑटोरिक्शा का अंतिम सफ़र था और वह अंतिम भावनात्मक पल था जिसे मैंने अपने दिल के किसी कोने में जिन्दा ही दफ़न कर दिया था. जो चिता मैंने कुछ घंटे पहले तैयार की थी, उसमे आग लगा दी थी.
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वे दिन गुजर चुके थे. उसके बाद हमारी अंतिम परिक्षाये हुयी और हर कोई एक-दुसरे से विदा होने लगा. आज पूर्णिमा को विदा करने मैं उसके हॉस्टल आया था, और हॉस्टल गेट से निकल कर वो मेरे सामने खड़ी थी. वो मेरे नजदीक आयी और बोली, "हम आगे भी अपनी दोस्ती जारी रखेंगे. मुझे हर हफ्ते फ़ोन करना मत भुलना! ओके!"
मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा, बस मेरी आँखों से आंसू बह निकले. हालाँकि मैं न तो रो ही रहा था और न ही मुझे किसी बात का गम ही था. मैं उन पलों को अपने दिल में संजो रहा था. मैं उससे ढेर सारी बाते कहना चाहता था, हमारी दोस्ती के बारे में, हमारे प्यार के बारे में और हमारे संबंधो के बारे में. पर मेरे मुंह से कुछ भी नहीं निकला, सिवाय एक शब्द के, "ठीक है!"
"गुडबाय जितेन्द्र!" उसने अपने अंतिम कहे. फिर वो अपनी कार में बैठी और अपने घर के लिए रवाना हो गयी. मैं उसकी जाती हुयी गाड़ी को देखता रहा, उसके पीछे उड़ रहे धुल और धुएं को भी, जिसमे कुछ-कुछ मेरी भी छाया थी. मुझे ऐसा लगा जैसे उसी क्षण, उसी जगह, मेरी एक दुनिया का दुखद अंत हो गया था. मैंने उस दुनिया को उसी जगह दफ़न कर दिया.
जहाँ मैं खड़ा था, मेरे ठीक बगल में एक बगीचा था जिसमे तरह-तरह के फूल खिले हुए थे. तितलियाँ एक फूल से दुसरे फूल पर मंडरा रहीं थी. अचानक मुझमे परिपक्वता की एक भावना ने प्रवेश किया था. एक तितली आकार मेरे हथेली पर बैठ गयी, और मैं उसको देखता रहा, 'मैं तितली हूँ और लड़कियां मेरे लिए बगीचे में खिले सुन्दर फूलों की तरह है.' मैंने सोचा.
फिर मैंने वो जगह छोड़ कर अपने रूम की तरफ जाने वाली सड़क पर अपने कदम बढ़ा दिए.............        

जितेन्द्र गुप्ता  

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