Thursday, September 5, 2013

गुप्त साम्राज्य एवं इसका ऐतिहासिक महत्व

यदि हम प्राचीन भारत के इतिहास पर नज़र डालें तो कोई भी कालखंड हममे उतनी उत्सुकता पैदा नहीं करता जितना की तीसरी सदी के अंत से लेकर सातवीं सदी के मध्य तक का कालखंड (३००-६५० ई.), जिसको की हम “गुप्त काल” के नाम से जानते है. विश्व के महान इतिहासकारों ने गुप्त काल को प्राचीन भारत का “क्लासिकी युग” या “स्वर्ण काल” कहा है. वास्तव में गुप्त काल में साहित्य, वास्तुकला व ललितकलाये उस उत्कृष्टतम स्तर पर पहुँच चुकी थी, की वो आगे आने वाले युगों के लिए एक आदर्श बन गयी.
इतिहास में गुप्त काल का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्यों की इस कालखंड में आर्यभट्ट और वराहमिहिर द्वारा ज्योतिष के सिद्धांत रचे गए. कालिदास ने संस्कृत में उत्कृष्टतम नाटकों की रचना करके संस्कृत भाषा साहित्य को उन्नत किया. विश्व के सर्वाधिक प्राचीन लिखित साक्ष्यों में शुमार होने वाले, पुराणों का संकलन इसी काल खंड की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी. उल्लेखनीय है की वराहमिहिर, कालिदास और धन्वन्तरी (प्रख्यात प्राचीन भारतीय चिकित्सक) सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौरत्नों में से एक थे. चीनी यात्री फाह्यान ने इसी कालखंड में भारत की यात्रा की थी, तथा अपनी यात्रा से सम्बंधित बहुमूल्य दस्तावेजों को संकलित किया था, जिसे आज भी प्राचीन भारत का इतिहास लिखने के लिए एक महत्वपूर्ण श्रोत एवं साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
गुप्तों की उत्पति:-
कुछ इतिहासकारों के विचारों को छोड़ दे तो ज्यादातर ऐतिहासिक विद्वान इस बात पर एकमत है की गुप्त राजवंश की उत्पत्ति वैश्यों से हुयी थी. इस सम्बन्ध में प्रख्यात इतिहासकार एलन, एस. के. आयंगर, अनंत सदाशिव अल्टेकर, रोमिला थापर तथा रामशरण शर्मा जैसे ऐतिहासिक विद्वानों के नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह बात सिद्ध की है एवं बताया है की ‘स्मृतियों के अनुसार नाम के उत्तरांश (अंत) में गुप्त शब्द का जोड़ा जाना वैश्यों की विशेषता थी. (हालाँकि कुछ इतिहासकार जैसे आर. सी. मजूमदार, जहाँ गुप्तों को क्षत्रियों से उत्पन्न मानते है वहीँ डॉ. राय चौधरी जैसे विद्वान गुप्तों को ब्राह्मणों से उत्पन्न हुआ मानते है, पर इनके विचार, वर्तमान में उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों और अभिलेखों से मेल नहीं खाते.)
गुप्त राजवंश के बारे में सर्वप्रथम साक्ष्य, तथा उनकी पूरी वंशावलियां पुराणों में उल्लिखित है. इस सम्बन्ध में ‘मत्स्य पुराण’, ‘वायु पुराण’ तथा ‘विष्णु पुराणों’ के नाम उल्लेखनीय है. इसके अलावा अनेक बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ भी है जिनसे गुप्तों के बारे में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है.
गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ. इनका आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश तथा बिहार में था. कालांतर में इन्होने अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा उसे भारत के पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक विस्तृत कर गुप्त साम्राज्य को भारतव्यापी साम्राज्य बना दिया. अगर वृहद् रूप से देखा जाये तो मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उत्पन्न राजनैतिक शून्यता को भरने के लिए, तथा प्राचीन भारत को एक सदी से भी ऊपर के कालखंड तक राजनैतिक एकता के सूत्र में बांधे रखने के लिए ही गुप्तों की उत्पत्ति हुई थी.
गुप्त राजवंश के पराक्रमी शासक:-
गुप्त वंशावली का परिचय देने के लिए, हमारे पास अनेक अभिलेख उपलब्ध है, जिनमे सबसे प्रमुख है समुद्र गुप्त का ‘प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख’, कुमार गुप्त का ‘विलसड स्तम्भ लेख’ और स्कन्द गुप्त का ‘भितरी स्तम्भ लेख’. इनके आधार पर गुप्तों के आदिपुरुष ‘महाराज श्रीगुप्त’ को माना जाता है. इनके पुत्र ‘महाराज घटोत्कच गुप्त’ के उत्तराधिकारी, तथा गुप्त वंशावली में सबसे पहले प्रतापी शासक ‘महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त प्रथम’ थे. चन्द्र गुप्त प्रथम महान शासक हुए, क्यों की उन्होंने ३१९-३२० ई. में अपने राज्यारोहण के स्मारक के रूप में “गुप्त संवत” की शुरुआत की. चन्द्र गुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी ‘समुद्रगुप्त’ (३५५-३८० ई.) ने गुप्त राज्य का अपार विस्तार किया.
समुद्रगुप्त के दरबारी कवि ‘हरिषेण’ ने अपने आश्रयदाता के पराक्रम का अभूतपूर्व वर्णन किया है. समुद्र गुप्त द्वारा जीते गए क्षेत्रों को हम पांच भागों में विभाजित कर सकते है, प्रथम भाग में गंगा-यमुना के दोआब के वे राजा थे, जिन्हें हरा कर उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिए गए. द्वितीय भाग में नेपाल, असम और बंगाल आदि के राजा थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपनी शक्ति का अहसास कराया. तृतीय भाग में विन्ध्य के जंगलों में पड़ने वाले आटविक राज्य थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने वश में कर लिया था. चतुर्थ भाग में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के बारह शासक शामिल थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपनी अधीनता में लेकर मुक्त कर दिया था. पांचवे भाग में शकों और कुषाणों के नाम है, जिनके राज्यों को समुद्रगुप्त ने जीत कर इन सुदूर देश के शासकों को अपने अधीन कर लिया था. समुद्रगुप्त इतने पराक्रमी थे की उनकी कीर्ति एवं यश भारत के बाहर भी फैली. समुद्र गुप्त को उनकी बहादुरी और युद्ध कौशल के कारण ‘भारत का नेपोलियन बोनापार्ट’ कहा जाता है. यह तथ्य निर्विवादित रूप से सत्य है की समुद्रगुप्त ने भारत के जितने बड़े भूभाग को अपने अधीन कर एकता के सूत्र में बांधा, उससे कही अधिक भाग में उनका लोहा माना जाता है. समुद्र गुप्त की दक्षिण विजय की नीति से उनके दयालु होने के भी प्रमाण मिलते है. उनकी दक्षिण विजय की नीति की तीन आधारशिलाएं  थी- (१) ग्रहण: शत्रु पर अधिकार (२) मोक्ष: शत्रु की मुक्ति (३) अनुग्रह: राज्य को लौटना. इसके अतिरिक्त समुद्रगुप्त एक विद्वान थे तथा संगीत के महान प्रेमी.
समुद्र गुप्त के पश्चात उनके उत्तराधिकारी ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय’ हुए, जो समस्त गुप्त राजाओं में  सर्वाधिक शौर्य और वीरोचित गुणों से संपन्न थे. इन्हें ही ‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’ के नाम से भी जाना जाता है. इनके शासन काल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँच चुका था. दिल्ली में कुतुबमीनार के पास खड़े ‘लौह-स्तम्भ’ पर खुदे हुए अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय का ही कीर्तिवर्णन किया गया है. विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत नौरत्न विद्वान चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार की शोभा बढ़ाते थे. चन्द्रगुप्त द्वितीय ने न केवल समुद्रगुप्त द्वारा जीते गए साम्राज्य को अक्षुग्ण बनाये रखा बल्कि मालवा तथा गुजरात के प्रदेशों को जीत कर उसमे अपना प्रभुत्व भी स्थापित किया.
चन्द्र गुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारी ‘कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य’ हुए. इन्होने ने ‘नालंदा विश्वविद्यालय’ की स्थापना की थी. जो इस दुनिया का पहला विश्वविद्यालय था जहाँ पर वर्मा, मलाया, थाईलैंड, चीन, कम्बोडिया और जापान इत्यादि देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे. ‘कुमारगुप्त’ के बाद ‘स्कंदगुप्त’ राजसिंहासन पर बैठे. इन्होने गिरनार पर्वत पर स्थित सुदर्शन झील का पुनरुद्धार करवाया था.
स्कंदगुप्त के बाद कुछ अन्य शासको ने गुप्त वंश की शोभा बढाई जिनमे से कुमारगुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त, भानुगुप्त, कुमारगुप्त तृतीय तथा विष्णुगुप्त के नाम उल्लेखनीय है.
गुप्तकाल की कला एवं स्थापत्य:-
गुप्तकाल की स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन गुप्त सम्राटों द्वारा निर्मित मन्दिर थे. मंदिर निर्माण कला का जन्म इसी काल से हुआ था. गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी इंटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे. भितरगाँव का मंदिर (कानपुर, उ.प्र.) इंटों से ही निर्मित है. इसके अलावा दशावतार मंदिर (देवगढ, ललितनगर) भी गुप्तकालीन कला का उन्नत नमूना है, जो आज भी उस काल के वैभव की कहानी बयां कर रहा है. इसके अलावा अनेक मंदिर और भी है जो सम्पूर्ण भारत में यत्र-तत्र बिखरे पड़े है. जैसे विष्णु मंदिर, शिवमंदिर, लक्ष्मन मंदिर इत्यादि. किन्तु इन सब के अलावा, अगर हम गुप्तकालीन सर्वोत्कृस्ट मंदिर की बात करें जिसके अवशेष आज भी पूरी भव्यता के साथ मौजूद है तो वो है ग्वालियर के किले में उपस्थित प्राचीन ‘तेली का मंदिर.’ हालाँकि ग्वालियर का किला सन ८७५ में बनवाया गया था, किन्तु वैज्ञानिक शोधों से यह बात ज्ञात हुयी है की प्राचीन ‘तेली का मंदिर’ वहां पहले से ही मौजूद था जिसे सन २७५ में तत्कालीन ‘गुप्त शासकों’ ने बनवाया था.
Teli ka Mandir, Gwalior Fort

Teli ka Mandir

गुप्तकाल में चित्रकला भी अपने उच्च शिखर पर पहुँच चुकी थी. गुप्तकालीन चित्रों के उत्तम उदाहरण हमें महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित अजंता की गुफाओं तथा ग्वालियर के समीप स्थित बाघ गुफाओं से प्राप्त होते है.
गुप्तकाल का साहित्य:-
गुप्त काल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है. प्रसिद्ध इतिहासकार बार्नेट के अनुसार, ‘प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्तकाल का वो महत्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लियन युग का है.’ इस काल में भारत के विश्वप्रसिद्ध लेख़क कालिदास (अभिज्ञान शाकुंतलम), विष्णु शर्मा (पंचतंत्र), भारवि (किरातार्जुनियम) और भट्टी (भट्टिकाव्य) जैसे महान साहित्यकारों ने अपनी कृतियों की रचना की.
गुप्त काल का वैज्ञानिक प्रगति में योगदान:-
गुप्तकाल में खगोल-शास्त्र, गणित तथा चिकित्सा शास्त्र का विकास भी अपने चरमोत्कर्ष पर था. इस काल में प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर ने प्रसिद्ध ग्रन्थ वृहत्संहिता एवं पञ्चसिद्धान्तिका की रचना की. आर्यभट्ट अपने समय के विख्यात गणितज्ञ थे. जिन्होंने दशमलव प्रणाली का विकास किया. आर्यभट्ट प्रथम नक्षत्र विज्ञानी थे, जिन्होंने यह बताया की पृथ्वी अपनी धुरी पर घुमती हुयी सूर्य के चक्कर लगाती है. इसके अलावा चिकित्सा के क्षेत्र में न केवल ‘वाग्भट्ट’ जैसे विद्वानों ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अष्टांग हृदय’ की रचना की बल्कि ‘धन्वन्तरी’ जैसे प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य और चिकित्सक ने शल्य-शास्त्र (सर्जरी) का विकास किया. 
अणु-सिद्धांत जो आधुनिक क्वांटम भौतिकी की आधारशिला है, का प्रतिपादन भी गुप्तकाल में ही कर लिया गया था.
गुप्तकाल का मूल्यांकन:-
गुप्तकाल साहित्य, कला एवं विज्ञान के उत्कर्ष का काल था. इस काल में भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ. यह काल श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान सम्राटों के उदय के लिए भी जाना जाता है. इस काल में राजनैतिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता और आर्थिक समृद्धि भी अपने चरम पर थी. इतनी सारी विशेषताओं के होने की वजह से ही अधिकाशतः इतिहासकारों ने गुप्त काल को स्वर्णयुग, क्लासिकल युग, एवं पेरिक्लियन युग कहा है.
वास्तव में गुप्तकाल के शासकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास पर जो अमिट छाप छोड़ी है, उससे वो अमर हो गये है. आगे आने वाली पीढ़िया सदियों तक भारतीय इतिहास के इस युग को याद करेंगी और उसको आदर्श के रूप में पुनः स्थापित करेंगी.
लेख़क :
जितेन्द्र गुप्ता

सन्दर्भ सूची:-
१.      प्राचीन भारत (NCERT BOOK), रामशरण शर्मा.
२.      प्राचीन भारत का इतिहास, डी. एन. झा.
३.      यूनिक सामान्य अध्ययन (भाग-१).

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