भाग-1
क्या पच्चीस साल का हो जाना, शादी करने की उम्र हो जाने जितना महत्वपूर्ण है? यह सवाल इसलिए मेरे मन में आया क्यों की उस
वक़्त तक, मेरे ज्यादातर दोस्तों ने शादी कर ली थी और वो अपनी जिंदगी में धीरे-धीरे सेटल हो रहे थे.
कुछ समय पहले, मैंने "खुशवंत सिंह" जी, जो की इंग्लिश साहित्य के बहुत बड़े लेखक है और जिन्होंने ढेर सारी कहानिया और
उपन्यास लिखे है तथा जो अग्रणी समाचार पत्रों में साप्ताहिक स्तम्भ भी लिखते है, की आत्मकथा "सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत" पढ़ी थी. अपनी इस पुस्तक में उन्होंने यह बात
स्वीकार की है की, "अपने साथियों में से कई को अपने सामने ख़तम
होता देख कर मुझे भी यह अहसास होने लगा है, की मेरा भी अंत अब निकट है. और मुझे अब दुगनी रफ़्तार से अपने द्वारा निर्धारित
किये गए लक्ष्यों को पूरा करने में लग जाना चाहिए. मुझे दुःख है, की मैं अपनी जिंदगी में, अगर कुछ और पहले लिखना शुरू कर देता तो आज मैं कुछ
ज्यादा लिख चुका होता." उन्होंने यह भी लिखा है की "अगर आप सोचते है की
आपकी मृत्यु के बाद दुनिया आपको याद करे, तो आप कुछ ऐसा कर जाइये जिससे आपके जाने के बाद दुनिया का कुछ भला होता रहे, या फिर कुछ ऐसा लिख जाइये जिसे वो आपके जाने के
बाद भी पढ़ते रहे."
मैंने उनसे सबक सीखा था, और मरने से पहले मैं अपनी जिंदगी में कुछ बन जाना चाहता था. शादी करना, बहुत लोगों के लिए नयी जिंदगी शुरू करने जैसा
अनुभव होता है, सच है, मृत्यु के बाद ही नया जीवन मिलता है और शादी करने को मैं मृत्यु के समान मानता था इसलिए, शादी करने के पहले ही मैं अपनी जिंदगी को एक निश्चित दिशा दे देना चाहता था. पर मेरी दादी को यह बात कौन समझाता, वो जब-देखो तब कोई न कोई लड़की का रिश्ता मेरे
सामने रख देती थी, और मुझे भावनात्मक रूप से ब्लेकमेल करने लगती थी.
"ईश्वर! देखो इस लड़की की फोटो कितनी सुन्दर है? घर के काम-काज में निपुड होने के अलावा इसने
बी.एड भी कर रखा है." एक लड़की की फोटो मेरे सामने रखते हुए दादी ने मुझसे
कहा.
मैंने उस फोटो पर ध्यान नहीं दिया और कहा, "पर दादी! मुझे तो अभी शादी ही नहीं करनी. तुम
फालतू में परेशान मत हो."
"शादी क्यों नहीं करनी? तेरे सारे दोस्तों ने शादी कर ली, तेरी उम्र पच्चीस पार कर रही है, और तू हर बार शादी के लिए मना कर दे रहा है? क्या बुढा हो जायेगा तब शादी करेगा? और तब तुझसे शादी करेगा भी कौन?"
दादी कहे जा रही
थी. और मैं खामोश बैठा सुन रहा था. उनका गुस्सा करना वाजिब था, पर मेरा मना करना भी एक तरह से वाजिब ही था.
"लगता है जब मैं मर जाउंगी तभी तू शादी के लिए
हाँ करेगा?" दादी ने मुझे इमोशनल करने की कोशिश की.
पर मैंने उनकी भावनाओं को एक तरफ करते हुए, धीरे से कहा, ""दादी! अभी मुझे कुछ करना है, मेरा सपना है की सिविल सर्विस परीक्षा पास कर के अपनी जिन्दगी में कुछ बन जाऊ. शादी तो मैं कभी
भी कर सकता हूँ. और फिर अभी इतनी जल्दी ही क्या है?"
"तू देख रहा है, घर में कितनी समस्याए है? तेरे पिता जी को और घर में हर एक को कही
आने-जाने में, घर की देख-भाल करने में और खाना बनाने इत्यादि में कितनी तकलीफ होती है? शादी के लिए हाँ कर दे और फिर तेरे जो जी में
आये करना, मैं तुम्हे मना नहीं करुँगी, घर पर पहले से ही इतना बड़ा व्यवसाय है, की तुझे उसके लिए कुछ कमाने की जरुरत भी नहीं
है?"
दादी कहती जा रही
थी, और मैं मष्तिस्क शुन्यता वाली स्थिति में घिरता जा रहा था. मैं जानता था की अगर मैं यहाँ कुछ भी बोलूँगा तो दादी को बुरा लग सकता है, इसलिए मैं वहां से उठा, और घर के बाहर घुमने के लिए निकल गया.
पर मेरे मन में उलझने तो थी. "क्या मैं सही कर रहा हूँ? कही बाद में मुझे इसके लिए पछताना न पड़े?"
ऐसे समय जब आपके
सारे जान-पहचान के लोग बंधे-बंधाये पारंपरिक रास्ते पर चल रहे हो, तब आपको अपने दिल की आवाज़ से निर्धारित किये
गए नए रस्ते पर चलने में बहुत हिम्मत और प्रबल
इच्छाशक्ति दिखाने की जरुरत होती है. "क्या दादी का कहना, मुझे मान लेना चाहिए और अपनी जिंदगी में भटकाव को यही ख़तम कर देना चाहिए?"
जैसे कई प्रश्न
मेरे दिमाग में कौंध रहे थे, और मेरे पैर शहर के बीच से बहती हुयी गोमती नदी की तरफ बढे जा रहे थे. मैं जब भी उदास होता था, तो अपने शहर के बीच से बहती गोमती नदी, के ऊपर बने "सद्भावना पुल" पर ही जाता था, और वही मुझे शांति मिलती थी. आज भी मैं वही
करने जा रहा था.
घर से कुछ ही दूर पहुंचा था की मेरा मोबाइल बजने
लगा, मैंने फ़ोन उठाया, ये अभिषेक का फ़ोन था-
"कैसे हो भाई और कहाँ हो?" वह पूछ रहा था.
"ठीक हूँ यार; तुम बताओ? वैसे मैं सद्भावना पुल की तरफ जा रहा हूँ." मैंने
अनमनेपन से जवाब दिया.
"बहुत दिन हो गए तुमसे मिले हुए; अभी मिल सकते हो क्या?" उसने फिर से कहा.
"वहीँ पुल पर आ जाओ, मैं कुछ देर वही पर बिताने वाला हूँ." मैंने कहा, और फिर उसने फ़ोन काट दिया.
अभिषेक मेरे ही साथ बी.टी.सी. (बेसिक टीचिंग कोर्से) का प्रशिक्षण ले रहा था. पर
उसमे और मुझमे अन्तर था. मैं प्रशिक्षण हेतु हर रोज प्रशिक्षण केंद्र पर जाता था
जबकि वो शुरुआत के कुछ दिन नियमित आने के बाद शहर में ही एक कंपनी में नौकरी करने
लगा था.
भाग-2
कुछ देर और चलने के बाद मैं पुल पर पहुँच गया था. शाम हो रही थी, और अँधेरा घिर रहा था. अगस्त के महीने में, चन्द्रमा काले बादलों के बीच से धरती की तरफ
निहार रहा था. पुल के दोनों तरफ लगी रेलिंग, के बीच-बीच में लगे खम्भों, में से एक-दो खम्भों के बल्ब की रोशनी, पुल पर छाए अँधेरे को कम कर रही थी. बत्ती की रोशनी, पुल के नीचे बह रही गोमती नदी के मटमैले पानी
पर पड़ रही थी. यूँ तो इस साल औसत से कम ही बारिश हुयी थी, पर इतनी बारिश ने भी इस नदी को उसकी सीमायें तोड़ने की शक्ति दे दी थी. चूँ की
यु.पी.- बिहार का यह इलाका "अन्धकार का क्षेत्र" माना जाता है, इसलिए इधर आस-पास के कई इलाकों में बाढ़ भी आई हुयी थी. पर जौनपुर में अभी यह परिस्थिति नहीं आई थी. हालाँकि गोमती का पानी उफान पर था.
पुल पर और भी लोग थे, कुछ रिक्शे वाले, दिन भर गधे की तरह खटने के बाद, अपने रिक्शे पर घोड़े बेच कर सो रहे थे. कुछ ठेले वाले थे, जो अपने ठेलों पर भुट्टे वगैरह बेच रहे थे. स्ट्रीट लैम्प की धुंधली रोशनी में, पुल पर काफी संख्या में लोग उपस्थित थे. पर
लोगों की भीड़ में भी मैं खुद को अकेला महसूस कर रहा था. मैं रेलिंग के सहारे नदी
की तरफ मुह कर के खड़ा हो गया और नदी के मटमैले पानी को निहारने गया.स्ट्रीट लैम्प की रोशनी अभी भी नदी के पानी
पर झिलमिला रही थी. नदी का वेग बहुत तीव्र था. कुछ देर तक नदी का पानी घूरते-घूरते
मुझे भ्रम होने लगा की मैं टाइटैनिक सरीखे बड़े जहाज पर एकदम आगे खड़ा हूँ, और पुल-रूपी जहाज समुद्र में बड़ी तेजी से आगे
बढ़ता जा रहा था. मटमैले पानी में कभी-कभी जल्खुम्भी का झुण्ड आ जाता था, और कभी कुछ अनजानी वस्तुएं बहती हुयी पास कर जाती थी. मैं नदी की सुन्दरता में पूरी तरह मोहित हो गया
था की तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाँथ रखा, और मैं चिहुंक कर टाइटैनिक जहाज से सीधा सद्भावना पुल पर आ गिरा.
मैंने पीछे मुड़ कर देखा, ये अभिषेक था. और उसके चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान थी. हाय-हैलो करने के बाद
वो भी मेरी तरह पुल की रेलिंग के सहारे सड़क की तरफ मुह कर के खड़ा हो गया.
"और कैसे हो?" पहल सवाल उसी का था.
"मैं तो ठीक हूँ, तुम बताओ? तुम्हारी जॉब कैसी चल रही है." मैंने कहा.
"ठीक ही चल रही है भाई!" उसने कहा फिर
हमारे बीच खामोशी ने जगह बना ली.
कुछ देर खामोश रहने के बाद उसने कहा, "तुमने किसी को बताया तो नहीं की मैं जॉब कर रहा हूँ?"
वह प्रश्नवाचक दृष्टी से मेरी तरफ देख रहा था, मैंने कहा-"मुझे क्या गरज पड़ी है की मैं
किसी से तुम्हारी चुगली करने जाऊ?" फिर कुछ देर सोच कर मैंने कहा,
"यहाँ सभी ने कुछ न
कुछ इंतज़ाम कर रखा है. पर कोई किसी से कुछ बताता नहीं, तुम मेरी तरफ से निश्चिन्त रहो."
फिर हम पुल पर आने-जाने वालों को देखते रहे.
"तुम्हे पता है, जिस कंपनी के शोरुम पर मैं काम करता हूँ,आज वहां एक औरत आई थी वह शादी-शुदा थी. शोरुम में घुसते ही, सीधे मेरे पास आई और बोली-'मुझे कुछ कपडे चेंज करवाने है?' पहले तो मैं थोडा सकपकाया, फिर मैंने उससे कहा-'कपडे चेंज करवाने है तो आप ड्रेसिंग रूम में जाइये.' इस पर उसने कहा की-'आप समझ नहीं रहे है, मेरे जो वो है ना, वो मेरे लिए कुछ कपडे खरीद कर ले गए थे. पर वो कपडे मेरी साइज़ के नहीं है.' जब मैंने उससे कपडे दिखने को कहा तो पता है वो
कौन से कपडे थे?"
"कौन से?" मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया.
"वो उसकी 'ब्रा' थी" फिर वो हसने लगा, और उसकी हसी में मैं भी हसने लगा. पर उसने कहना जारी
रखा-"जब मैंने उससे पूछ- 'मैम! आपको इसमें क्या प्रॉब्लम है.' तो वो जोर दे के बोली- 'अरे ये 34 नम्बर के है ना, और मेरी साइज़ 32 है.' "
मुझे उसकी बात सुन कर खिल-खिलाकर हसने को दिल हुआ, पर मेरी हसी का गुबार बस मुस्कान तक ही सिमट कर
रह गया.
"बाद में उसने अपने कपडे बदलवाए और फिर जाकर
गयी." उसने कहा और फिर वो हसने लगा.
यह उसकी बात करने की चिर-परिचित शैली थी. और उसकी हर बात में
लड़कियाँ ही मुख्य किरदार होती थी. मुझे याद है की, एक बार मैंने उससे पूछा था- "तुम हमेशा
लड़कियों की ही बात क्यूँ करते हो? ईश्वर ने संसार में और भी खूबसूरत चीजें बनायीं है, क्या वो चीजें तुम्हे आकर्षित नहीं करती?"
तो इसका जवाब में उसने कहा था- "लड़कियाँ ही तो इस सृष्टि
की रचयिता है, पूरी रामायण और पूरी महाभारत लड़कियों को ही केंद्र में रख कर
तो लिखी गयी है. तो फिर तुम्ही बताओ की ईश्वर की इस महत्वपूर्ण संरचना को छोड़ कर
दूसरी खूबसूरत चीजों के बारे में बात करना, क्या उसकी बनायीं इस सर्वश्रेष्ठ कृति का अपमान करना नहीं होगा?"
और मुझे याद है की मैं निरुत्तर हो गया था.
"तो 'मीनल' का क्या हाल-चाल है?"
मैंने बात को आगे
बढ़ाते हुए उससे पूछा.
"ऐसे ही चल रहा है यार! पर वो बहुत भाव खाने लगी है. उसे शायद अपने ऊपर बहुत घमंड है."
उसने अपना मुह बना कर कहा.
मीनल एक सुन्दर सी, सांवली सी, लड़की थी, जो हमारे साथ ही बी.टी सी. का प्रशिक्षण ले रही थी, जिसको अभिषेक ने हमारी क्लास के शुरुआती दिनों में ही प्रपोज कर दिया था.
"तो उसका घमंड उतारने के लिए तुम कुछ कर नहीं
रहे हो?"
मैंने कहा,
"कभी उसको अपने साथ
रूम पर ले जाओ?"
"अरे नहीं यार! सड़क पर दो कदम साथ चलने में तो उसे डर सताता रहता है की कही कोई उसे देख न ले.
रूम पर क्या खाक आयेगी?" उसने तनिक खीझते हुए कहा.
"पर यार! रूम का जुगाड़ तो करना ही पड़ेगा."
कुछ देर सोच कर उसने फिर कहा.
"जब मीनल तुम्हारे साथ नहीं आ रही तो रूम का
क्या करोगे?" मेरे मन में उत्सुकता पैदा हुयी.
"रूम मुझे मीनल के लिए नहीं, 'आरती मैम' के लिए चाहिए." अभिषेक के चेहरे पर कुटिलता भरी मुस्कान तैरने लगी.
"कौन आरती मैम? वही जो फैकल्टी ऑफिस में बैठती है?"
मैं चिहुंका.
"हाँ ! वही." वो मुस्करा रहा था.
"लेकिन ये सब हुआ कैसे और कब से?"
मुझे उसकी बातों
पर भरोसा नहीं हो रहा था.
जिस आरती मैम की वो बात कर रहा था वो हमारे प्रशिक्षण केंद्र पर फैकल्टी थी.
वो बहुत सुन्दर थी, लेकिन शादी-शुदा थी. हमारी क्लास के शुरुआती दिनों में अभिषेक अक्सर
उनके केबिन में चला जाया करता था और घंटों वही बिताया करता था. अपनी वाक्पटुता की
वजह से उसने सारी फैकल्टी में अच्छी-खासी जन-पहचान भी बना ली थी. वो अक्सर आरती मैम से हंसी-मजाक भी
किया करता था पर आरती मैम से उसका सम्बन्ध इस स्तर तक पहुँच जायेगा, ये मैंने सोचा भी नहीं था.
"पर यार! वो तो शादी-शुदा है?" मैंने थोडा सकुचाते हुए पूछा.
"तो उससे क्या हुआ? क्या शादी-शुदा महिलायों के पास दिल नहीं होता?"
वो कहता जा रहा था
और मैं उसे सुनता जा रहा था, "तुम्हे शायद नहीं पता होगा की उनका एक चार साल का बच्चा भी है."
उसकी बातें मेरे सिर के ऊपर से निकल रही थी. भला एक शादी-शुदा महिला, जिसका एक चार साल का बच्चा भी है, अपने पति को छोड़ कर किसी और पुरुष के पास क्यों जाएगी? और यहाँ तो ऐसा भी नहीं था की आरती मैम और
अभिषेक के बीच में २-३ साल पुराना याराना रहा हो, ये खेल मुश्किल से २-३ महीने पहले शुरू हुआ था.
"अच्छा ये बताओ, आरती मैम के हसबैंड क्या करते है?"
मैंने उससे आगे
पूछा.
"वो इलाहबाद में सिविल सर्विस परीक्षा की तयारी कर रहे है." अभिषेक ने बताया.
"इसका मतलब ये हुआ की उनके हसबैंड ने उनमे
दिलचस्पी लेना कम कर दिया होगा, तभी वो तुम्हारे पास आ रही है." मैंने उसकी बातों से निष्कर्ष निकालने की
कोशिश की.
"हो सकता है. पर मैं पूरी तरह श्योर नहीं हूँ." अभिषेक ने कहा, पर मेरी जिज्ञासा बढती ही जा रही थी,और मैंने उससे सब-कुछ शुरुआत से बताने के लिए
कहा.
"दरअसल जब हमारी क्लासे शुरू हुयी थी, तब मैं नियमित रूप से प्रशिक्षण केंद्र पर जाता
था, और तुम तो जानते ही हो की मैं केवल चुनिन्दा
लोगों से ही बात करता था, तुम उन्ही लोगों में से थे. कभी-कभार जब तुम नहीं आते थे, तो अपना टाइम पास करने के लिए मैं अक्सर आरती मैम के केबिन में चला जाया करता था. आरती
मैम से बातचीत की शुरुआत भी एक संयोग ही था. वो मेरे साथ बहुत मजाक किया करती थी. एक दो बार बातें करते-करते मैं उनके रूप-रंग की
तारीफ भी कर दिया करता था की-'मैम! आज तो आप बिलकुल 'माल' टाइप लग रहीं है' और वो झेंप जाती थी, कुछ दिनों बाद हमने एक-दुसरे का मोबाइल नंबर लेकर एक-दुसरे को 'एस.एम.एस.' भजने शुरू कर दिए. मैं तो उनको एक ही दो 'एस.एम.एस.'भेजता था, जिसके जवाब में 'एस.एम.एस.' की लाइन लगा देती थी. फिर उसके बाद मैं उन्हें बीच-बीच में नॉनवेज 'एस.एम.एस.' भेजने लगा. पर उन्होंने उसकी कभी शिकायत नहीं की. जिससे मेरे हौसला बढ़ा और एक दिन रात में जब मैं उनसे
बात कर रहा था, तो मैंने उन्हें प्रपोज कर दिया."
"फिर?"
"बस, आरती मैम तो जैसे इसी बात का इंतज़ार कर रही थी. उन्होंने अपने सरे दुःख-दर्द
मुझसे बयां करना शुरू कर दिए. कभी वो कहती थी की 'तुम जब रात को मुझे बात करते हो, तो मेरे सीने में हलचल होने लगती है, मन करता है की सब-कुछ छोड़ कर तुम्हारे पास चली
आऊ.' फिर कभी वो अपने हसबैंड के बारे में बताने लगती
थी, 'मेरे हसबैंड अब मुझमे कम इंटेरेस्ट लेने लगे है, शादी के बाद से दिन-प्रतिदिन उनका प्यार घटता
ही जा रहा है, पर जब हमारी नयी-नयी शादी हुयी थी, वो हर हफ्ते मेरे पास आते थे, और मुझे भरपूर प्यार करते थे. लेकिन तब मेरी नौकरी नहीं लगी थी. पर मेरी शादी के कुछ दिनों बाद जब मेरी माँ का
देहांत हुआ, तो उनकी नौकरी मुझे मिल गयी, क्यों की मेरी माँ अपनी नौकरी के कार्यकाल में ख़तम हुयी थी. और उसी के कुछ दिन बाद मुझे बच्चा हुआ, बस तभी से उनका इंटेरेस्ट ही मुझमे ख़तम सा हो गया है.और अब तो वो महीनो-महीनो के अंतराल
पर घर आते है. कहते है की परीक्षा के तयारी में अधिक समय देने की वजह से मुझे समय
नहीं दे पा रहे है.' मुझे तो लगता है की मेरी नौकरी लग जाने की वजह से ही वो मुझसे जलन रखने लगे
है."
अभिषेक की बातें अब मेरी समझ में आने लगी थी. "तो ये बात है;"
मैंने हामी भरते हुए
कहा,
"तुम तो बहुत तेज
निकले यार!"
"यही समझ लो;" अभिषेक ने कहा, "वैसे मेरा उनसे कोई इमोशनल अटैचमेंट नहीं है, वो ही मेरे ऊपर बहुत भरोसा जताने लगी है. क्यों की मैंने उनसे कहा, 'मैम, मैं पैसे तो मैं कमाता नहीं, मेरी तो नौकरी लगने में भी अभी बहुत टाइम बचा है.
मेरे साथ आकर आपको क्या मिलेगा. मैं तो आपकी कोई जरुरत भी पूरी नहीं कर पाउँगा?' तो जानता है उन्होंने क्या कहा?"
"क्या?"
"उन्होंने कहा की 'पैसों की चिंता तुम छोड़ दो, मुझे देखो मैं बत्तीस हजार रूपया कमाती हूँ हर महीने, तुम्हे जिस चीज की जरुरत हो, बोलना, मैं लाकर दूंगी. मुझे तो बस तुम्हारा साथ चाहिए' " अभिषेक मेरी ही तरफ देख रहा था.
फिर हमारे बीच कुछ देर खामोशी छाई रही, और हम पुल पर लोगों को आते जाते देखते रहे.
"तो इसीलिए तुम रूम खोज रहे हो." मैंने ख़ामोशी तोड़ने की
कोशिश की.
"हाँ ! अगर तुम कुछ मदद कर सको तो बताओ?"
मैंने कुछ देर सोचा फिर कहा, "देखता हूँ, वैसे एक-दो लड़के है मेरी नज़र मे, जो रूम लेकर रहते है. उनसे बात करनी पड़ेगी, शायद कुछ बात बन जाये." मैंने आशा व्यक्त की.
हम अभी भी वही खड़े थे, और पुल पर आते-जाते लोगों को देख रहे थे. तभी अभिषेक का फ़ोन बजने लगा और उसने फ़ोन पर किसी से बात की. और फिर मुझसे बोला,
"भाई! अभी मुझे घर निकलना होगा, माँ का फ़ोन आया था, उन्होंने तुरंत बुलाया है.बाद मे मिलते
है...." कहकर वो जाने लगा, "रूम का जुगाड़ हो जाये तो जल्दी बताना" फिर वो चला गया.
मैं वही पुल पर काफी देर तक खड़ा रहा, और अभिषेक की बताई कहानी के बारे मे बार-बार सोचता रहा. फिर मुझे उबन होने
लगी. मैंने घडी देखी, मुझे वहां आये एक घंटे से ऊपर हो गए थे, इस लिए मैंने घर वापस जाने वाले रास्ते पर अपने
कदम बढ़ा दिए.
पर मेरे मन मे अभी भी वही कहानी तैर रही थी.
भाग-३
मैं घर वापस लौट आया और ड्राइंग रूम मे बैठा शाम की चाय पी रहा था, की मेरी दादी भी वही आ गयी. उन्होंने मुझे देखा
और मैंने उनको देखा, और मुझे तुरंत ही यह अहसास हो गया, की उन्होंने मुझसे कुछ पूछा था, जिसका जवाब दिए बगैर मैं घर से बाहर चला गया
था.
"कहाँ गए थे?" दादी ने पूछा.
"पुल की तरफ घूमने निकल गया था." मैंने कहा, और अपनी नज़रें दूसरी तरफ फेर लीं.
"तो क्या सोचा है तुमने?"
उन्होंने फिर
पूछा.
"किस बारे मे?" मैंने अनजान बनाने की कोशिश की.
"अरे उसी लड़की के बारे मे; जिसकी फोटो मैंने तुम्हे दिखाई थी. शादी के लिए
हाँ कर रहे हो ना?" दादी ने कहा.
"...........?" मैं कुछ नहीं बोल पाया. मेरी समझ मे नहीं आ रहा
था की क्या करूँ.
"ज्यादा सोचो मत, बस शादी के लिए हाँ कर दो, फिर जहाँ चाहो चले जाना, मैं तुम्हे नहीं रोकूंगी. तुम्हे जो करना हो
करना, जो सपने साकार करने हो करना." दादी कहती
जा रही थी. और मेरे मन मे अभिषेक की बताई कहानी घूम रही थी.
"सोच कर बताता हूँ.." मैंने बात को टालने की कोशिश की. फिर वहां से उठकर अपने कमरे मे चला आया, और बिस्तर पर धडाम हो गया.
मेरे आँखों के सामने बार-बार अभिषेक का मुस्कराता हुआ चेहरा आ जाता था, उसकी बताई आरती मैम की कहानी बार-बार मन मे घूम
रही थी, और मैं खुद को आरती मैम का हसबैंड समझने लगा. और इसका अंदाज़ा लगा कर मेरी रूह काँप गयी.
मैं अपने कमरे मे लेटा रहा. लगा की जैसे अभिषेक ने मेरा भविष्य कुछ देर पहले
मुझे बता दिया हो......