‘ईश्वर’ बी.एड. की प्रवेश परीक्षा देकर घर लौट रहा
था. परीक्षा का केंद्र इलाहाबाद में था. परीक्षा देकर घर लौटने के लिए, उसे बहुत
मुश्किल से बस मिली. बस परीक्षार्थियों से खचाखच भरी थी और उसे भीड़ में पैर रखने
की जगह भी बहुत मुश्किल से नसीब हुयी थी. दरअसल आस-पास के कई जिलों के
परीक्षार्थियों की परीक्षा का केंद्र इलाहाबाद में ही दे दिया था. एकाएक एक ही शहर
में इतनी भीड़ हो जाने से ये समस्या उत्पन्न हुयी थी. ‘ईश्वर’ को घर पहुचने की
जल्दी थी, इसलिए परीक्षा देने के बाद उसने सीधे बस पकड़ ली. सुबह बस एक चाय पी थी
और जल्दबाजी में कुछ खाया भी नहीं था. सुबह से भूखा होने की वजह से उसे चक्कर जैसा
महसूस हो रहा था.
खैर बस इलाहाबाद से निकल कर अब गावों के रास्ते
से गुजर रही थी. उसे इंतज़ार था तो बस के बीच रास्ते में कही रुकने का ताकि वो कुछ
खा सके और भूख से मुक्ति पा सके.
करीब घंटे भर की यात्रा के बाद बस एक जगह रुकी.
लोग तरोताजा होने के लिए बस से उतर गए. ‘ईश्वर’ भी उतर गया और पास के नल पर अपना
मुंह धुलकर पानी पीया. सामने झोपड़ी में एक दुकान थी जहाँ नमकीन और चिप्स के
प्लास्टिक के पैकेट लटक रहे थे और झोपड़ी में ही एक छोटा सा फ्रिज भी था जिसमे
कोल्ड-ड्रिंक के बोतल रखे हुए थे. बस पर सवार यात्री झोपड़ी वाली दुकान पर टूट पड़े
थे. कुछ चिप्स-नमकीन के पैकेट लेकर खा रहे थे और कुछ कोल्ड-ड्रिंक पी रहे थे. उसी
झोपड़ी के बगल में एक ठेले वाला भी था जो मूंगफली और चुरमुरे बना कर बेच रहा था.
‘ईश्वर’ को तीखा खाने की इच्छा हो रही थी इसलिए उसने
सोचा की क्यों न वह भी चिप्स का कोई पैकेट खरीद ले? या गर्मी से निजात पाने के लिए
कोई कोल्ड-ड्रिंक ही पी ले? वह ये करने ही जा रहा था, कि उसे कुछ याद आया और उसके पैर
ठिठक गए.
उसे याद आया की ये चिप्स-नमकीन और कोल्ड-ड्रिंक
आदि सब विदेशी कंपनियों द्वारा बनाये गए थे. ये वही कम्पनियाँ थी जो यहाँ भारत देश
में भारी मुनाफा कमा कर, हमारे देश का पैसा विदेश भेजने वालों में थी. उसे अपनी
पढ़ी हुयी एक बात याद आयी, जो उसने अपने स्नातक की पढाई के दौरान पढ़ी थी. ‘इन
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बनाये गए समानों की कीमत उनके ऊपर छपे हुए दाम का
मुश्किल से दस प्रतिशत होता है. उदहारण के लिए अगर किसी कोल्ड-ड्रिंक की कीमत दस
रुपये है तो मुश्किल से उसकी लागत एक रुपये अधिकतम आती है. यानि की ये कम्पनियाँ
केवल एक रुपये की लागत से नौ रुपये का मुनाफा कमाती है. हम अज्ञानतावश, वैश्वीकरण
के नाम पर उनके द्वारा बने उत्पादों को खरीद कर उपयोग करने में गर्व का अनुभव करते
है और अनजाने में ही अपने देश के उद्योग धंधो को चौपट कर देते हैं. ज्यादा समय
नहीं बीता, आज से करीब दो-ढाई सौ साल पहले हमारे देश में इन्ही जैसी एक कम्पनी
व्यापार करने आई थी, जिसका नाम ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ था. उसने व्यापर करने के नाम
पर हमें अपना ग़ुलाम बना लिया, और हम पर करीब दो सौ साल तक राज किया.’ आज की ये
बहुराष्ट्रीय कंपनिया ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ से ज्यादा अलग नहीं है. अब अगर अपने
कर्मों को नज़रंदाज़ कर, हम बेरोज़गारी का रोना रोयें तो इस दुनिया में हमसे ज्यादा
बेवकूफ कौन होगा?
‘ईश्वर’ के मन में इन विदेशी कंपनियों द्वारा बने
उत्पादों के प्रति घृणा भर गयी. यह सही था की वह थोड़ी सी बात पर भी कुछ बड़ी-बड़ी
देशप्रेम की बातें सोच रहा था, पर यह भी सत्य था की हम बदलेंगे तो ही ये समाज
बदलेगा और फिर ये देश.
‘ईश्वर’ बगल में खड़े ठेले वाले की दुकान की तरफ
मुड़ गया. उसने उससे मूंगफली और कुछ चुरमुरा खरीदा और खा कर अपनी भूख शांत की. उसके
मन में अब शांति थी की उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने देश के लोंगो के
रोज़गार को प्रोत्साहित किया था और अपने देश का पैसा अपने देश में ही रहने दिया था.
उसने सोचा की काश हर कोई अपने हर कदम पर यही सोच रखता तो वो दिन दूर नहीं जब हमारा
देश फिर से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाता. जरुरी नहीं की हम अपने देश
से प्रेम करने के लिए देशप्रेम की बड़ी-बड़ी बातें करे, इन छोटे-छोटे कार्यों के
द्वारा भी हम अपने देश से प्रेम का प्रदर्शन कर सकते है.
जितेन्द्र गुप्ता
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