Monday, September 9, 2013

"परिवर्तन"

बात तब की है जब मैं बारहवीं में पढता था. कुछ ही दिन पहले मैंने ग्यारहवीं कक्षा पास की थी, हालाँकि पढाई में मेरी रूचि नहीं थी, फिर भी घर वालों के दबाव में आकर मैंने जीव विज्ञानं विषय ले लिया था. इसके पीछे कारण ये था की घर पर, मेरे यहाँ, दवा की दुकान थी और मेरे पिता जी मुझे डाक्टर बनते देखना चाहते थे. भगवान की कृपा से दुकान अच्छी चल रही थी. और मैं दुकान के छोटे-मोटे काम सीख गया था. पिता जी की उम्मीदों से अलग मुझे अपनी जिंदगी में कुछ खास मुकाम हासिल करने की कोई तमन्ना नहीं थी. मैं अपना ज्यतातर वक़्त मोहल्ले के लड़कों के साथ गप्पे लड़ाने में ही बिता देता था.
मेरी ही कक्षा में 'सुधा' नाम की एक लड़की भी पढ़ती थी और वो बहुत सुन्दर भी थी. मेरा उससे प्रेम सम्बन्ध हो गया था. हम अक्सर चोरी-छिपे, एक-दुसरे से मिलते भी थे. गाँव में वह अपने दादा-दादी के साथ ही रहती थी, उसकी माता जी का देहांत हो चुका था और उसके पिता जी शहर में नौकरी करते थे और केवल छुट्टियों पर ही घर आते थे. 
सुधा से मिलने की आदत दिन-प्रतिदिन नशे में तब्दील होती गयी, और मेरी हिम्मत इतनी बढ़ गयी की मैं, अक्सर चोरी-छिपे रात में, सुधा के घर, उसके कमरे में खिड़की के रास्ते से घुस जाता था और एक-दों घंटे उसके साथ बिता कर, रात में ही अपने घर वापस आ जाता. मेरे घर वाले मेरी इस आदत से थोडा परेशान रहने लगे थे, पर मैंने उन्हें बताया था की मैं अपने दोस्त के यहाँ पढाई करने जाता हूँ. उन दिनों जिंदगी का बस एक ही मकसद था, की किसी तरह अपने प्यार को मंजिल तक पहुँचाना है, और सुधा से शादी करके घर बसना है. 
एक दिन, रात को मैं सुधा से मिलने गया, और एक घंटे बिता कर ही, करीब १२ बजे, वापस लौटने के लिए उसके कमरे की खिड़की से बाहर निकल ही रहा था, की किसी ने मुझे देख लिया, और चोर-चोर चिल्लाकर शोर मचाने लगा. मुझे नहीं पता था की वो कौन था, और मैं बदहवास होकर भागने लगा, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, और काफी लोग जग चुके थे. उन्होंने मुझे पकड़ लिया, और मुझे बहुत मारा. जब उनका गुस्सा कुछ शांत हुआ तो उन्होंने मुझे पुलिस के हवाले कर दिया. शुरू में पुलिस को शक था की मैं चोरी करने के उद्देश्य से घर में घुसा था पर मेरे पास से चोरी का कोई सामान बरामद न होते देख कर, उनको किसी अन्य चीज पर शक होने लगा. और उन्होंने भी मुझे बहुत प्रताड़ित किया. अंत में मैंने उन्हें सारी बात बता दी. 
तब तक मेरे पिता जी भी थाने में आ गए थे, उन्होंने मुझे छुड़वाया और घर ले गए. मेरे पिता जी की गाँव में बहुत इज्जत थी, पर मेरे इस कृत्य ने उनका सर शर्म से नीचे झुका दिया था. पूरे गाँव में शोर मच गया की मेरा, सुधा के साथ चक्कर चल रहा था. लोग नमक-मिर्ची लगाकर मेरे और सुधा के बारे में बात कर रहे थे. गाँव में मेरे पिताजी की बहुत बदनामी हुयी. पुलिस की प्रताड़ना से मेरा मनोबल जो टूटा सो अलग. इस घटना के बाद सुधा, कुछ दिन तक स्कूल नहीं आई फिर पता चला की वो अपने पिता जी के साथ शहर चली गयी है और अब वही रह कर पढेगी. मेरे घर में मुझ पर भी शासन लगा दिया गया था, पर मेरा मन करता की मैं भाग कर सुधा के पास चला जाऊ. एक-दो बार मैं गाँव छोड़ कर शहर भी गया, पर सुधा ने मुझसे मिलने से इंकार कर दिया.
सुधा में अचानक हुआ ये परिवर्तन देख कर मैं बहुत हताश हो गया, और निराश कदमों से घर वापस आ गया. मेरे सपने टूट चुके थे. मेरे पिता जी हालाँकि मुझसे कुछ कहते नहीं थे, पर उस घटना की वजह से हुयी बदनामी की कसक उनके चेहरे पर साफ दिखती थी. मोहल्ले के लड़कों की नज़र में भी मैं गिर चुका था, और स्कूल में अक्सर मेरा मजाक उड़ाया जाता और मुझे जान-बुझ कर नज़रंदाज़ किया जाता. मेरा कहीं भी मन नहीं लगता, न स्कूल में, न मोहल्ले में और न दुकान पर. मैं पूरी तरह असामाजिक तत्त्व बन गया था.
लोगों को इस तरह मुझसे कतराता देख कर, मैं अपना ज्यातातर वक़्त अपने कमरे ही बिताने लगा. किताबे खोलता तो सुधा का चेहरा दिखता, बंद करता तो घर-परिवार की बदनामी. कई बार कोशिश करने के बावजूद मैं सुधा को भुला नहीं पा रहा था. मेरा, अक्सर रोने को दिल करता, और मुझे समझ में नहीं आ रहा था, की मैं क्या करूँ?
एक दिन मैं ऐसे ही अपने कमरे में बैठा हुआ, हिंदी की काव्य पुस्तक के पन्ने पलट रहा था, की मेरी नज़र 'महादेवी वर्मा' जी द्वारा लिखी गयी एक कविता पर गयी-

"बांध लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे, तितलियों के पर रंगीले?
तू न अपनी छांह को अपने लिया कारा बनाना,
जाग तुझको दूर जाना!, जाग तुझको दूर जाना!"

कविता की इन्ही पंक्तियों ने मेरे मन पर जादू सा असर किया और मेरे मन की सोच बदल दी. मैंने फैसला किया की मैं अपने ही कर्मो को अपने लिए कारागार नहीं बनाऊंगा. सुधा को मन से निकाल कर, पिता जी के सपनों को साकार करूँगा. और उसी क्षण मैंने डाक्टर बनने को अपना लक्ष्य बना लिया. सुधा को भुलाने के लिए मैंने अपने कमरे को महापुरुषों की तस्वीरों से पाट दिया, मैंने महापुरुषों की जीवनियाँ पढ़ी, और उन्ही के जैसा बनने के सपने देखने लगा. सुबह से शाम तक अपने कमरे में ही पढ़ता रहता, और जिन विषयों से पहले मैं  मुंह चुराता फिरता था, अब वही विषय मुझे अपनी तरफ आकर्षित करने लगे. मैंने उस साल इंटर की परीक्षा पास की, नम्बर तो बहुत अच्छे नहीं आये थे, पर मेरा आत्मविश्वास और विषयों पर मेरी पकड़ इतनी अच्छी हो गयी थी की मैंने इलाहाबाद जाकर मेडिकल की कोचिंग करने का निर्णय ले लिया. हालाँकि पिता जी मेरे इस निर्णय पर थोडा संदेह कर रहे थे, उन्हें लगता था की मैं शहर जाकर दुबारा लड़कियों के चक्कर में फँस जाऊंगा. पर मैंने उन्हें विश्वास दिलाया और उनसे एक साल की मोहलत मांगी. पिता जी ने मेरी बात मान ली क्यों की इंटर की पढाई के दौरान वो मेरी मेहनत को देख चुके थे.  
मुझे याद है की इलाहाबाद में मैंने दिन-रात एक कर दिया, न किसी से मिलना, न कही बाहर जाकर गप्पे लड़ना. सुबह तैयार होकर कोचिंग जाता, और दोपहर तक वापस कमरे पर लौटकर पढाई में जुट जाता. उस वक़्त मेरे ऊपर एक नशा सा सवार हो गया था, और वो एक साल मेरे लिए जीने-मरने का प्रश्न बन गए थे. मैंने उस साल की पी.ऍम.टी. की परीक्षा दी. पेपर अच्छा गया था, और मैं वापस घर आ गया.
कुछ  दिन बादजब पी.ऍम.टी. का रिजल्ट आया, तो  मेरी कोचिंग की तरफ से मेरे घर पर फ़ोन आया, उन्होंने बताया की मेरा रिजल्ट अच्छा आया है, पर मेरी रैंक बहुत अच्छी नहीं आयी है. उन्होंने मुझे एक साल और तैयारी करने की सलाह दी. मेरा दिल बैठा गया. मुझे इस तरह के परिणाम की आशा न थी, और मुझे समझ में नहीं आ रहा था की मैं क्या करूँ. उस वक़्त लगा की जीवन जैसे ख़त्म सा हो गया है, पर मेरे मन में अभी भी आशा की एक किरण शेष थी. मैंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की पी.ऍम.टी. भी दी थी और उसका रिजल्ट आना अभी बाकी था.
कुछ दिनों बाद उसका भी रिजल्ट आया, पर मेडिकल में दाखिले के लिए मेरी रैंक बहुत कम थी. उस रैंक पर मुझे बी. फार्मा. में दाखिला मिल रहा था. मैंने पिता जी को ये बात बताई, उन्होंने मुझसे कहा, "कोई भी काम या क्षेत्र छोटा नहीं होता, दाखिला लेकर आगे बढ़ो!" 
मैंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया. वहा से मैंने फार्मेसी में स्नातक की पढाई पूरी की, और फिर वही से फार्मेसी में ही स्नातकोत्तर की पढाई (ऍम. फार्मा.) भी पूरी की.  ऍम. फार्मा. के दौरान मैंने 'औषधीय रसायन' विषय पर शोध किया, और अपने शोध के परीक्षणों के दौरान एक ऐसे रसायन की खोज की, जिसमे की शुरूआती परीक्षणों में 'दर्द निवारक गुण' थे. मेरे इस शोध को अमेरिका की प्रतिष्ठित शोध पत्रिका "मेडिसिनल केमिस्ट्री रिसर्च" ने प्रकाशित किया. उसके बाद से मेरे कई शोध पत्र (रिसर्च पेपर) दुनिया की बेहतरीन शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके है. 
आज उसी शोध के बल पर, मैं "राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ" में 'रिसर्च एसोसिएट' के पद पर कार्यरत हूँ, और औषधीय शोध करना ही मेरे जीवन का एक-मात्र लक्ष्य बन गया है. आज भी जब मैं पलटकर उन पिछले दिनों की तरफ देखता हूँ, तो सुधा को शुक्रिया जरुर कहता हूँ. शायद वो उसका एक इंकार ही था, जिसने मेरी जिंदगी का लक्ष्य बदल दिया, और आज मैं एक शोध वैज्ञानिक बनने की राह पर अग्रसर हूँ.      

जीतेन्द्र गुप्ता 

'एक अधूरी कहानी'

कुछ घटनाएँ हमारी जिंदगी में घटित ही इसलिए होती है, ताकि वो हमें एक अहसास दे सकें, जिसकी यादें, हम अपनी सारी जिंदगी, अपने दिल के किसी कोने में बेहद सहेज कर साथ रखे रहे. जब की वो घटना अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाती है, ताकि किसी और को वही अहसास दे सके.
मेरे साथ जब वो घटना घटित हुयी, तब मैंने उस शख्श को और उसकी यादों को भुलाने की बहुत चेष्टा की थी, पर उस वक़्त तक ऐसा था की मानो वो शख्श और वो घटना मेरे दिलोदिमाग से चिपक सी गयी थी, और उसको भुलाने की मेरी सारी कोशिशें व्यर्थ साबित हुयी थी. आज, जब की उस घटना को बीते हुए बहुत वक़्त गुजर गया है, और वो शख्श मेरी जिंदगी का एक भुला हुआ अध्याय हो चुका है, तो जब मैं पीछे मुड़ कर उन घटनाओं पर नज़र डालता हूँ, तो वो मुझे अनुभवों से भरा दिखता है.
मेरे कॉलेज के दिनों को बीते हुए 5-6 वर्ष गुजर चुके है, और इस दौरान मैं रोजमर्रा की जिंदगी में इतना व्यस्त हो चुका हूँ, की मुझे उसका ख्याल कभी-कभार ही आता है. पर इन्ही व्यस्तताओं के बीच जब मुझे अपने लिए कुछ वक़्त मिलता है, तो मेरे मन में उसको लेकर एक ही सवाल कौंधता है- "कभी-कभार ही सही, क्या वो भी मेरे बारे में सोचती होगी जैसे की मैं उसके बारे में सोचता हूँ?" और जब मेरे मन में ये प्रश्न उभरता है, तो कॉलेज के अंतिम दिनों की यादें भी उभर आती है, फिर मुझे ऐसा लगने लगता है की जैसे ये अभी कल की ही घटना हो.
मुझे उस दिन के, वो आंसू याद है, जो की उसकी खुबसूरत आँखों से बह रहे थे, जिस दिन हम सभी अपने कॉलेज से विदा हो रहे थे. गर्ल्स हॉस्टल के सामने, मैं, उसके घर से उसको लिवा जाने के लिए आयी हुयी उसकी कार के बगल में, खड़ा था. जब वो गेट से बाहर निकल रही थी, तो मैंने उसकी आंखे देखी थी. एक पल के लिए हमारी नज़रें एक-दुसरे से उलझ गयी थी और उस एक क्षण के लिए वक़्त मानो थम सा गया था. मैं अपने कॉलेज के गुजरे तीन सालों की यादों में खोता गया था, इस वास्तविकता से बेखबर की यह हमारे कॉलेज का अंतिम दिन था और मैं उसको वहां अंतिम बार देख रहा था.
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उसका नाम 'पूर्णिमा' था, और वो एक जवान खुबसूरत लड़की थी. उम्र यही कोई बीस के आस-पास रही होगी, जब की उसने मेरे साथ ही कॉलेज में दाखिला लिया था. 'मैं उसको पहली बार देखते ही प्यार में पड़ गया था'- हमारे बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था क्यों की कॉलेज के शुरुआती 3-4 महीनो तक हम एक-दुसरे के लिए अजनबी ही बने रहे.  
उसके-मेरे बीच की दूरियां घटनी तब शुरू हुयी थी जब हमारी पहली छमाही की परीक्षाओं के रिजल्ट घोषित हुए, जिसमे की वो अच्छे अंको से पास हुयी थी जब की मैंने अपनी क्लास में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये थे और मेरी क्लास के मेरे साथी मुझे बधाइयाँ दे रहे थे. कुछ मुझसे पार्टी लेने की जिद कर रहे थे. पहले तो मैंने उन्हें मना करना चाहा था, पर उन लोगों की इच्छा के आगे मुझे झुकाना पड़ा, और मुझे कॉलेज के ही कैफेटेरिया में उन्हें पार्टी देनी पड़ी. क्लास के हर एक व्यक्ति को मैंने पार्टी में आमंत्रित किया जिसमे पूर्णिमा भी शामिल थी.
पार्टी चल ही रही थी जब पूर्णिमा मेरे पास आयी, और परीक्षाओं में मेरी सफलता के लिए उसने मुझे बधाई दी. यह सिर्फ मैं ही नहीं था बल्कि मेरे साथ के अन्य लड़के भी थे जो उस घटना के गवाह बने थे जिसमे बधाई के शब्दों के साथ कुछ अनकहे शब्द भी थे. जैसे 'प्यार छुपाये नहीं छुपता' वैसे ही उसकी आवाज़ में प्यार की गर्माहट भी थी, जो की दुनिया को स्पष्ट जाहिर हो रहा था, जब की वो अपनी भावनाओं को छुपाने की असफल कोशिश कर रही थी.
मुझे नहीं लगता की कोई भी भारतीय लड़की किसी लड़के के सामने अपने प्यार का इजहार करने का पहला कदम उठाती होगी, भले ही वो उसके प्यार में पागल ही क्यों न हो. यह शायद भारतीय लड़कियों को ईश्वर की तरफ से दिया गया उपहार है. जब की ये जिम्मेदारी लड़कों को ईश्वर ने सौंप दी है. उस शाम, जब मैं अपने हॉस्टल पहुंचा, मेरे सारे दोस्त मेरे और पूर्णिमा के बारे में बाते करके मेरी मौज लेने लगे. हालाँकि मेरा मन सातवें आसमान पर छलांगे लगा रहा था; पर ऊपर ही ऊपर से मैं उन्हें ये जताता रहा की मुझे पूर्णिमा को लेकर हो रही बातों से कोई सरोकार नहीं था.
हॉस्टल में मैं राहुल के साथ रहता था, जो एक नंबर का प्लेबॉय था. वो एक साथ तीन-चार लड़कियों को हैंडल करने में एक्सपर्ट था. पिछले छह महीनो से साथ रहते हुए हम एक-दुसरे से बहुत घुल-मिल  गए थे. वो मुझे अपनी हर गर्ल फ्रेंड के बारे में बताता था की कैसे उसने उन्हें पटाया और फिर उनके साथ हमबिस्तर हुआ. वो जो दुनिया देख चुका था, हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे इसलिए उसकी बातों को बहुत ही इंटरेस्ट के साथ सुनते थे और रात में सपने देखते थे. हमारी क्लास में ही ज्योति नाम की लड़की भी थी, जो की क्लास के शुरुआती दिनों में ही राहुल की अच्छी गर्ल फ्रेंड बन गयी थी. राहुल ने ज्योति को पूर्णिमा के दिल की बात पता करने को कहा. ज्योति ने ये काम सिर्फ दो दिनों में ही कर दिया. 
उस शाम राहुल ने मुझे पूर्णिमा के दिल की बात बताई थी- "वो तुम्हारे प्यार में पागल हो चुकी है, और अब उसे इंतजार है तो बस 'तुम कब उसे प्रपोज करोगे?'" मुझे याद है, राहुल के इन शब्दों ने मुझ पर जादू का सा असर किया था. अचानक ही दुनिया, मुझे पहले से ज्यादा खुशनुमा लगने लगी थी; प्रकृति पहले से भी ज्यादा हरियाली से भरी; और उदास चेहरों के उदासी के पीछे कोई कारण नहीं नज़र आ रहा था. इसके पहले मुझे ऐसा अहसास कभी भी नहीं हुआ था. और एक अनपढ़ भी समझ सकता था की ये पहले प्यार की भावनाए है. जब आपको पता चलता है की कोई आपको दिल से चाहता है और आपके ख्यालों के समुंदर में हर वक़्त डूबा रहता है, तो आप खुद को बहुत ही स्पेशल मानने लगते है. लेकिन अभी तक तो मैंने उसे प्रपोज नहीं किया था, और ये ऐसा काम था जिसे हर लड़के को खुद ही करना पड़ता है. मैं चाहता तो ज्योति को अपना मेसेंजर बना सकता था और वो यह काम करने को स्वयं प्रस्तुत थी, लेकिन मैंने तय कर लिया था की पूर्णिमा को मैं खुद ही प्रपोज करूँगा.
वो अप्रैल का महीना चल रहा था, और मौसम रात के वक़्त कुछ-कुछ ठंडा, दिन के वक़्त कुछ-कुछ गर्म होने लगा था. मेरे दिमाग में हलचल मचनी शुरू हो गयी थी. 'मैं उसे कैसे प्रपोज करूँ?' यह एक ऐसा सवाल था जो की मैं पूरे दिन सोचता रह जाता था. "क्या मुझे सबके सामने भरी क्लास में उसे प्रपोज करना चाहिए जैसा की हिंदी फिल्मो में अक्सर दिखाता है? और अगर सबके सामने ही उसने मुझे मना कर दिया तो? क्लास के सारे लड़के मुझ पर हँसेंगे और मैं मजाक का पात्र बन कर रह जाऊंगा. अच्छा यही होगा की मैं उसे किसी ऐसी जगह प्रपोज करूँ, जो दिन में भी वीरान रहती हो, ताकि अगर वो मेरा प्रपोजल अस्वीकार भी करे तो क्लास में किसी को पता न चले. एक तरह से सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे!" 
दिन में लंच ऑवर में क्लास लगभग खाली हो जाती थी, और ज्यादातर लड़के-लड़कियां कैंटीन चले जाते थे. लेकिन पूर्णिमा अपना टिफिन लाती थी इसलिए कैफेटेरिया वो कभी-कभार ही जाती थी. मैंने तय किया की मैं उससे लंच ऑवर में ही बात करूँगा.
सुबह से लेकर दोपहर तक, मेरी धड़कने घोड़े के रफ़्तार से दौड़ रही थी. क्लास में टीचर्स आते और पढ़ा कर चले जाते थे. पर मेरा मन उस दिन क्लास में नहीं लग रहा था. क्लास के बीच-बीच में मेरी नज़रे पूर्णिमा की तरफ घूम जाती थी, "क्या ये वही लड़की है जिससे मैं वास्तव में प्रेम करना चाहता हूँ?" यह सवाल मेरे मन में कौंधता था और इसका जवाब मुझे तब मिल जाता था जब वो भी मेरी ही तरह मुझे घूम-घूम कर देखती रहती थी. लग रहा था की जैसे हम एक-दुसरे से लुका-छिपी का खेल खेल रहे हो. अब मुझे बस लंच ऑवर का इंतजार था.
लंच ऑवर भी जल्दी ही आ गया. और कुछ को छोड़ कर, ज्यादातर लड़के-लड़कियां कैफेटेरिया जा चुके थे. पूर्णिमा के पास जाने से पहले मैं क्लास की खिड़की के पास गया, ताकि मैं कुछ आशावादी बन सकूँ और इस काम को अंजाम देने का साहस जुटा सकूँ. हालाँकि मन में अभी भी भ्रम की स्थिति बनी हुयी थी. 'कही राहुल ने मुझे, उसकी भावनाओ के बारे में गलत जानकारी ना दे दी हो? लेकिन आज सुबह से पूर्णिमा की आंखे मुझसे झूठ नहीं बोल रही थी. वो मुझसे प्यार करती है!!! मैंने अपने मन में यह बात बैठा ली और मन में आ रही नकारात्मक भावनाओं को दरकिनार किया. मैंने उसकी तरफ कदम बढ़ा दिए, और मुझे ऐसा लगा जैसा वो मेरा ही इंतजार कर रही थी.
लड़कों की पांचो इन्द्रियां मिल कर भी, लड़कियों की छठी इंद्री का मुकाबला नहीं कर सकती और ये छठी इंद्री इतनी शक्तिशाली होती है की ये लड़कों को इंद्री-विहीन बना देती है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था. मैं पूरी तरह इन्द्रिय-विहीन हो चुका था और मैंने प्यार के महासागर में छलांग लगा दी.
"हाय!" मैंने उससे पहली बार कुछ कहा था.
"हाय!" वह थोड़ा चकित होते हुए बोली. (लड़कियां ऐसी ही होती है.)
"हाउ डू यु डू?" मैंने एक और सवाल किया.
"फाइन!" उसकी बातों से अजनबीपन झलक रहा था. 
मैं उससे बात करते हुए उसकी आँखों में देख रहा था, और उसकी आँखों की गहराई में इस कदर खो गया था की मुझे यह याद ही नहीं रहा की अब उससे आगे क्या बात करनी है? मैं भूल गया था की मैं अपनी क्लास में बैठा हूँ, और आधे घंटे का लंच ऑवर अब समाप्ति के कगार पर था. क्लास में काफी लोग भी इकट्ठे होना शुरू हो गए थे. पर उन सब से बेखबर मैं पूर्णिमा के बगल वाली कुर्सी पर बैठा रहा.
"मैं तुमसे अपने मन की एक बात बताना चाहता हूँ." मैंने कहा.
"एक बात?" उसने दुहराया.
"हाँ एक बात! या मेरे मन की एक फीलिंग्स है तुम्हारे लिए." 
"ओह!.........बताओ." उसने मुझसे पूछा.
वो मुस्करा रही थी जब की मैं भावनात्मक तनाव के कगार पर खड़ा था. मेरी धड़कने, जो पहले घोड़े की रफ़्तार से दौड़ रही थी, अब टाइम मशीन की रफ़्तार से दौडने लगी थी.
"आज कल पता नहीं क्यों मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है." मैंने सीधे शब्दों में उसे अपने मन की बात बता दी थी.
वह कुछ पल के लिए खामोश हो गयी थी; जैसे की वो भी सोच रही हो की 'क्या कहा गया था?' और 'इसके जवाब में क्या कहना चाहिए था?' मुझे याद है की उस समय केवल मैं ही नहीं था जिसे अपने आस-पास खड़ी भीड़ की कोई फिक्र नहीं थी बल्कि वो भी उसी बेफिक्री में शामिल थी. हम दोनों एक-दुसरे की आँखों में खो गए थे. शायद प्यार में ऐसा ही होता है 'सर्वाधिक शर्मीला व्यक्ति भी, प्यार में पड़ने के बाद थोडा बेफिक्र हो ही जाता है और उसे अपने आस-पास के माहौल की कोई खबर नहीं रहती.'
लंच के बाद हमारी प्रैक्टिकल क्लास शुरू होने वाली थी और हम पहले से ही उसके लिए देर हो चुके थे. पूर्णिमा को दूसरी लड़कियां साथ में चलने के लिए बुला रही थी. वो मुझे बिना कोई जवाब दिए ही चली गयी. मैंने भी जल्दी की और प्रैक्टिकल क्लास में पहुंचा. उस दिन बायलोजी के प्रैक्टिकल की जगह, हम पूरे क्लास के दौरान एक-दुसरे को निहारते रहे. जैसे की हम एक-दुसरे पर प्रैक्टिकल कर रहे हो. शाम को प्रैक्टिकल की क्लास ख़तम होने के बाद, मैं, कॉलेज बस में, उसकी बगल में ही बैठ कर हॉस्टल वापस आया था. बस में, मेरी बाहें, उसकी बाँहों से स्पर्श कर रही थी. मुझे उसकी बाँहों की कोमलता और गर्मी का अहसास काफी दिनों तक याद रहा. उस दिन उसने मुझे अपने मोबाइल नंबर दिया, और कहा की 'जब भी तुम्हारी इच्छा हो मुझे फ़ोन कर लेना.'
मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. उस दिन के बाद कुछ दिनों तक मैं लोगों से नज़रें नहीं मिला पा रहा था, और मैं उस दुल्हे की शरमा रहा था, जो अभी-अभी अपनी शादी के बाद की पहली रात गुजार कर बाहर निकला हो. पहले प्यार की वो कोमल भावनाएं शुरुआत के एक साल तक बनी रही. उस वक़्त लगता था की जिंदगी कितनी मस्त है. उसका फ़ोन नंबर मिलने से जैसे हमारे बीच दूरियाँ ख़त्म सी हो गयी थी. फ़ोन पर हर रोज़ उससे घंटो बात करना मेरी आदत बन गयी थी. हमारा रिश्ता दोस्ती से काफी बढ़कर था, लेकिन पति-पत्नी वाली बात अभी भी नहीं थी. जिस दिन वो कॉलेज नहीं जाती थी, मैं भी कॉलेज से बंक मार लेता था. शायद हम एक-दुसरे को सहना सीख रहे थे.
कभी वो मुझ पर हावी होती थी, तो कभी मैं उस पर हावी रहता था, पर दोनों एक-दुसरे की जरुरत थे. मेरी आदत हो गयी थी, हर शाम मैं अपने रूम की छत पर बैठ जाता और उससे फ़ोन पर बात करता था, मैं उसे 'किस' (चुम्बन) करने को कहता और वो मुझसे 'किस' करने को कहती. हमारे कॉलेज के दुसरे साल तक यही हमारे प्यार का चरमोत्कर्ष था. मैं उससे बात करता रहता और शाम के आकाश को देखता रहता था. सूरज दूर क्षितिज पर अस्त हो रहा होता था, पक्षिओ के झुण्ड अपने-अपने घरौंदों की तरफ लौट रहा होता था. मैं उन पक्षिओं के झुण्ड द्वारा बनायीं गयी आकृतियों को देखता रहता था, जैसे की आकाश कोई सफ़ेद चादर हो और किसी कलाकार ने अपनी कला पूरे कैनवस पर बिखेर दी हो. कुछ देर में जब अँधेरा घिर जाता, और आकाश के मुंह पर कालिख पुत जाती तो उसका दाग धोने के लिए जैसे आसमान में तारे उग आते और टिमटिमाते रहते. और इस सब के दौरान प्रकृति इतनी शांत रहती जैसे की वो हमारा साथ दे रही हो. उस वक़्त तक, इसी तरह, हर रोज़, मेरे दो-तीन घंटे बीत जाते थे और मैं अपने रूम में वापस आ जाता था.
ना केवल मैं कुंवारा था, बल्कि वो भी कुंवारी ही थी. विज्ञानं के शब्दों में अगर मैं धनात्मक आवेश था तो वह ऋणात्मक और हमारे बीच आकर्षण स्वाभाविक था. मैं अक्सर उसके पास रहने की कोशिश करता, लेकिन वो हमेशा मुझसे एक अनजानी दूरी बनाये रखती थी. शायद वो भी आम भारतीय लड़कियों की तरह "टच मी नॉट सिंड्रोम" से ग्रसित थी और उसका ये बर्ताव मुझे हतोत्साहित कर देता. इन्ही जैसे कुछ कारणों से हमारे बीच रूठने-मनाने का सिलसिला चल पड़ता था. सुबह से शाम तक कॉलेज में बिताने के बाद हमें मौका नहीं लग पता था की हम कही फिल्म देखने सिनेमा हाल चले जाये; या किसी रेस्तरां हो आये.
इस दौरान मैं उसका इतना आदी हो गया था जैसे की वो कोई रोमांचक उपन्यास हो, और मैं उसका अंतिम पन्ना पढ़ रहा होऊ, जहा से उपन्यास ख़तम करके ही छोड़ा जा सकता है. पढाई तो जैसे परीक्षाओं के दौरान ही होती थी, बाकि सारा वक़्त मैंने पूर्णिमा के नाम लिख दिया था और वो मेरे दिलोदिमाग पर छा सी गयी थी.
वक़्त अपनी रफ़्तार से गुजरता रहा और हमारे कॉलेज के दो साल ऐसे बीत गए की मुझे पता ही नहीं चला. हमारे सामने हमारा तीसरा और अंतिम साल बचा था. इसी दौरान आई एक खबर ने मुझे झंकझोर कर रख दिया. पूर्णिमा के पिता जी ने उसकी शादी तय कर दी थी. मुझे आज तक नहीं समझ में आया की मुझे ऐसी खबर पर रोना चाहिए था या ख़ुशी से नाचना. एक ऐसे इन्सान द्वारा तब क्या किया जा सकता है जब उसकी गर्ल फ्रेंड की शादी किसी और से तय कर दी गयी हो. मुझे नहीं लगता की प्यार की ऐसी अवस्था की दुविधा दूर करने के लिए दुनिया में कोई किताब लिखी गयी होगी.
मेरे लिए पूर्णिमा एक ऐसी पहेली बन चुकी थी जिसको की मैं आज तक नहीं सुलझा सका. आज भी कभी-कभार मैं सोचता हूँ, की वो अपनी शादी से खुश थी या नही? क्योकि जब कभी मैं उससे अपने संबंधो के बारे में बात करता तो वो यही कहती, की वो मुझे प्यार करती है. लेकिन बात जब शादी की होती तो वो हमारी किस्मत को दोष देने लगाती थी. उसने तो जैसे यह वाक्य रट लिया था-"शायद हमारी किस्मत में यही लिखा था." यद्यपि मैंने उसे कभी भी शादी करने का प्रस्ताव नहीं दिया, इसके पीछे कारण था की उस वक़्त तक मेरी उम्र इतनी कम थी की मैं शादी जैसी बड़ी जिम्मेदारी के बारे में सोच नहीं सकता था. शायद मुझे और वक़्त चाहिए था, क्यों की मैं उसके लिए पागल भी था, और उसको खोना भी नहीं चाहता था. लेकिन वक़्त मेरे साथ नहीं था और शायद यह भी पहले से तय था की हम दोनों एक दुसरे के लिए नहीं बने थे. मुझे लगता है की मैं खुद ही इस मुद्दे पर तटस्थ हो गया था क्यों की उसके द्वारा मुझे अपनी शादी पर आमंत्रित करने के बावजूद मैं उसकी शादी में नही गया. सारी रात मैंने रूम में जागते हुए काट दी और उस दिन पहली बार मेरी आँखों से आंसू गिरे थे. उसने शादी कर ली और मैं उसका मुंह देखता रह गया, जैसे की मुझे किसी ने प्रयोग करके छोड़ दिया हो. मेरे दिल में ये कसक दबी रह गयी की मैं एक लड़की को नहीं संभाल सका.
एक कहावत है, "वक़्त सरे जख्मों को भर देता है." लेकिन मेरा घाव अभी भी नहीं भरा था. मैं उन मौकों की तलाश में रहता की कैसे अपने जख्मों को कुरेंद दूँ, और उन्हें फिर से हरा कर दूँ. कभी कभार प्यार में धोखा खाया इन्सान पहले से ज्यादा आत्मघाती हो जाता है. यही अवस्था मेरी थी.
गर्मियों के उमस भरे दिन थे. आकाश में बदल छाए थे और सूरज उसके बीच में से झांक रहा था. मैं सड़क पर आवारा लोगों की तरह घूमता रहता और कुछ भी सोचना बंद कर दिया था. उन्ही दिनों, ज्योति, जो की मेरी इस परिस्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थी, ने मुझे बताया की पूर्णिमा ने बाकायदा अपने शादी की प्लानिंग की थी और कॉलेज से एक महीने की छुट्टी भी ले ली थी. उसकी बातों से मेरे संदेह के बादल छट गए थे. 'वो अपनी शादी से बहुत खुश है और उसे मुझमे अब कोई इंटरेस्ट नहीं है.' मेरे मन में यही बातें घूम-घूम कर उभरती. इन सबके अलावा मेरे मन में जो बात सुई की तरह चुभ रही थी वो था उसका व्यवहार. शादी के बाद लगभग एक महिना गुजरने के कगार पर था लेकिन उसका ना तो कोई मेसेज आया और ना ही कोई फ़ोन. 'क्या वो मुझे भूल गयी है?', 'कोई किसी को इतनी जल्दी कैसे भूल सकता है?' मैं खुद से ही इतना क्रोधित था की मैं सारी कहानी को ही ख़त्म कर देना चाहता था, जिसको की खुद मैंने शुरू किया था, और अब जो खुद मुझे ही अन्दर ही अन्दर से खाए जा रही थी.
अपना हनीमून ख़त्म करके जिस दिन वो कॉलेज वापस लौटी, क्लास की सारी लड़कियों ने उसे इस तरह घेर लिया था जैसे की वो कोई 'सेलेब्रिटी' हो और वो सब उसका ऑटोग्राफ लेने के लिए खडी हो. लेकिन लड़कियां ऐसी ही होती है, वो नयी नवेली दुल्हन बनी लड़की के बारे में, और उसके पति के बारे में, उसके ससुराल के बारे में और उस हर चीज के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहती थी जो की उसकी शादी से जुड़ा था. मुझे याद है की उसे इस ख़ुशी में देख कर मुझे यह अहसास हो गया था की मैं कोई भुला हुआ अध्याय हो चुका था. वो क्लास की लड़कियों से बात करने में इतनी व्यस्त हो चुकी थी की उसे पता भी नहीं चला की मैं उससे कुछ दुरी पर खड़ा हूँ. मैं उसे अभिलाषा भरी नज़रों से तब तक देखता रहा, जब की उसने भीड़ में से नज़रे उठा कर मुझे नहीं देख लिया. जब उसने मुझे, खुद को घूरते हुए पाया तो उसने अपनी बातचीत वही रोक दी. मैं समझ गया था की मेरा काम हो गया था. इसके बाद मैं कैफेटेरिया चला गया. कुछ देर बाद मुझे खोजते हुए वो भी वही पहुँच गयी.
वह मेरे सामने खड़ी थी, और मैं उसको एक महीने के अन्तराल के बाद देख रहा था. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे की मैं उसके सामने अभी भी बच्चा था, और वो काफी परिपक्व हो चुकी थी. उसकी मांग में सिन्दूर की लकीर थी, माथे पर छोटी सी बिंदिया, होंठो पर लाल रंग की लिपस्टिक, कानो में बालियाँ तथा हाथों पर सुन्दर मेहंदी थी. वह जब भी इधर-उधर चलती तो उसकी कलाइयों की चूड़ियाँ और पैरों की पायल किसी संगीत की धुन की तरह बज उठते थे. मैंने अभी तक उसको इस रूप में नहीं देखा था, इसलिए भारतीय कुंवारी लड़कियों और भारतीय विवाहित लड़कियों के बीच का अंतर मुझे स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.
"कहाँ खोये हुए हो?" उसने तनिक मुस्कराते हुए कहा.
उसके इस प्रश्न ने, मेरी नज़रों को, उसके शरीर में हुए और बदलावों को खोजने से रोक दिया.
"तुम पहले से ज्यादा तंदरुस्त दिख रही हो." मैंने कहा. वास्तव में मैं उससे उसके व्यवहार के बारे में बात करना चाहता था, लेकिन उसकी व्यवहारगत गर्मजोशी से गच्चा खा गया. मुझे लगता है की प्यार में अक्सर ऐसा होता है, 'आपके प्रेमी के सामने आते ही आपका गुस्सा काफूर हो जाता है.'
"हाँ! मैं पहले से ज्यादा खाने लगी हूँ, और मुझे डर लग रहा है की कही मैं मोटी न हो जाऊ?" उसने कहा.
"तो तुम्हारी शादी कैसी रही?" मैंने आगे पूछा हालाँकि मैं उसकी शादी में इंटरेस्टेड नहीं था.
"बहुत अच्छी थी. लेकिन तुम आये ही नहीं? मुझे आशा थी की तुम आओगे." उसने कहा.
मैं निरुत्तर था लेकिन मुझे इस मुद्दे पर बात करना निरर्थक भी लगा इसलिए मैंने उसकी बातों को मोड़ने की कोशिश की, "तुम्हारे पतिदेव कैसे है?"
"ओह! वह तो बहुत अच्छे है, मेरा बहुत ख्याल रखते है." उसने उत्तर दिया.
"अच्छा है." मैंने भी उसकी बातो में सुर मिलाया.
"तो पढाई के बाद क्या सोचा है? मतलब क्या करोगी?" मैंने उससे आगे पूछा.
"मैंने कुछ सोचा नहीं है; जो कुछ भी वो कहेंगे वैसे ही करुँगी." उसने कहा.
'यह एक अन्य लक्षण है जो की भारतीय विवाहित महिलाओं में पाया जाता है.' मैंने सोचा. 'पतिदेव के इच्छा सर आँखों पर; ना कोई विवाद, ना कोई बहस.'
"क्या तुम अपनी शादी की फोटोग्राफ्स भी लायी हो?" मैंने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाना जरी रखा, यद्यपि उसकी बातों से मैं 'बोर' हो रहा था.
"हाँ! लायी हूँ; क्या देखना चाहोगे?" वह मुझसे पूछ रही थी.
और फिर वो मेरे जवाब का इंतजार किये बगैर ही अपने बैग में से शादी का एल्बम निकल कर दिखाने लगी.    
मैं उसकी शादी की तस्वीरें देखता रहा. हर तस्वीर में उसका मुस्कराता हुआ चेहरा नज़र आ रहा था. उन्ही तस्वीरों में से एक तस्वीर ने मेरा ध्यान आकर्षित किया. वह उसकी शादी के ठीक पहले की तस्वीर थी. इसमें वो अपने घर के किसी कोने में बैठी हुयी थी, एक साधारण सी सलवार-कमीज़ पहने हुए. उसकी नज़रे सामने की तरफ, मुझे ही देख रही थी और चेहरा बिना किसी भावों के हलकी उदासी से भरा था. तस्वीर से यह साफ था की उस वक़्त उसकी 'हल्दी की रस्म' हुयी थी. मैंने उससे वो तस्वीर ले ली. हालाँकि वो मुझे मना कर रही थी, "अरे! उसमे मैं कितनी गन्दी और भद्दी दिख रही हूँ." वह कह रही थी पर मैं नहीं माना. मैंने उससे वो तस्वीर शायद इसलिए ली थी क्यों की वो उसमे अकेली थी, उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसमे नहीं था. और सबसे बढ़कर उसके चेहरे के भाव मुझे मेरी ग़लतफ़हमी ('की वो अभी भी मुझे प्यार करती है; और अपनी शादी से खुश नहीं है.') को जिन्दा रखने के बढ़िया साधन लगे. 
फोटो सेशन ख़तम होने के बाद मैंने उससे शादी की पार्टी देने के लिए कहा. पहले तो उसने ना-नुकुर किया, लेकिन कभी-कभार अपने प्यारे पुराने दोस्तों को मना करना बहुत कठिन हो जाता है इसलिए उसने मेरी इच्छा पूरी करने की हामी भर दी. यह एक प्राइवेट पार्टी होने वाली थी; केवल वो और मैं, उसने मुझे भरोसा दिया. जब कॉलेज ख़तम हुआ तो हमने एक ऑटोरिक्शा किया और रेस्तरां की तरफ बढ़ चले.
शायद एक नयी कहानी वहां हमारा इंतजार कर रही थी, जिससे की हम दोनों ही अनजान थे. ऑटोरिक्शा भीड़ भरी सड़क में से तेजी से दौड़ता जा रहा था. सड़क पर हर गाड़ी एक-दुसरे को पीछे करने की फिराक में थी. ऑटो में केवल हम दोनों ही थे, एक-दुसरे की आँखों में खोये हुए और बाहर सड़क पर गुजर रही भीड़ से अनजान. कुछ पल के लिए हम दोनों ये भूल गए थे, की पूर्णिमा अब शादी-शुदा थी. मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले रखा था और उसकी हाथों की गर्माहट महसूस कर रहा था. शायद वो हमारे प्यार की तीव्रता ही थी की हम ऑटोरिक्शा में ड्राईवर की उपस्थिति भूल गए थे.
"क्या तुम अभी भी मुझसे प्यार करती हो?" मैंने उससे सीधा सा सवाल किया. मैं इसका जवाब जानना चाहता था.
"मैं तुमसे प्यार करती हूँ;......." वह कहते-कहते रुक सी गयी थी. "........लेकिन क्यूँ की अब मैं मेरी शादी हो चुकी है, तो हम दोनों के लिए अच्छा यही होगा की तुम मुझसे ज्यादा अपेक्षाए ना रखो." उसने अपनी बात पूरी कर दी थी.
मेरे मन में उमड़ रहे संदेह के बादल अब छटने लगे थे. शाम हो चली थी, और सूरज अपने पीछे आकाश पर गहरी लालिमा छोड़ कर अस्त हो चुका था. मैं शायद अपने जीवन के अंतिम रोमांटिक सफ़र को महसूस कर रहा था. जब हम रेस्तरां पहुंचे तो हमने ऑटो को छोड़ दिया और अन्दर चले गए. मुझे याद नहीं की उसने क्या आर्डर किया, और हमने कितना वक़्त वहां गुजारा. वह ठीक मेरे सामने बैठी थी और उसके पीछे एक अक्वेरियम रखा हुआ था, जिसमे रंग-बिरंगी मछलियाँ तैर रही थी. मुझे उन मछलियों के नाम नहीं पता थे, लेकिन उनका आकार-प्रकार आज भी दिमाग में जीवंत सा है. 'ये अपने जीवन का आनंद ले रही है.' मैं उन मछलियों के बारे में सोच रहा था, जब की मेरी अवस्था पानी से बाहर छटपटा रही मछली के जैसी हो गयी थी. "ये मछलियाँ भी मुझसे अच्छी अवस्था में है." मुझे अहसास हुआ.
रेस्तरां में उसने मुझसे जो कुछ भी कहा, शायद अब उसका कोई मूल्य नहीं रह गया था क्यों की मैं, हमारे संबंधो को ख़तम करने की रस्म निभा रहा था और उसकी चिता तैयार कर रहा था. वहां कुछ समय गुजारने के बाद हम बाहर निकल आये, ऑटोरिक्शा किया और हॉस्टल की तरफ लौट चले. एक बार फिर हम ऑटो में अकेले थे, बाहर अँधेरा घिर चुका था, जिससे अन्दर भी काफी अँधेरा हो गया था. हमारी सीट के पीछे ऑटोरिक्शा में एक छोटी सी खिड़की लगी हुयी थी. पीछे से आ रही गाड़ियों की सुनहरी पीली रोशनी, उसके चेहरे पर बिखरी हुयी थी. इतने करीब, इससे पहले हम शायद ही कभी आये थे. मुझे अचानक भ्रम होने लगा की कहीं मैं किसी और के साथ तो नहीं बैठा हूँ. 'करीब से देखने पर जाने-पहचाने चेहरे भी अक्सर बदल जाते है.' यह इसी का प्रभाव था. मैं उस खूबसूरत धोखे में मिट जाना चाहता था. मैंने उसे 'किस' किया, उसने मुझे 'किस' किया. मैंने उसकी उभरी हुयी गोलईयों को महसूस करने की कोशिश की. जब तक ऑटो चलती रही, हम दोनों एक-दुसरे की बाँहों में पड़े रहे. हम, सड़क से आ रहे शोर के बीच-बीच में चिल्ला रहे सन्नाटे की आवाज़, सुनते रहे. सड़क पर अभी भी तरह-तरह की गाड़िया वक़्त से 'रेस' लगा रही थी.
यह पूर्णिमा के साथ गुजरा मेरा अंतिम दिन था, उसके साथ ऑटोरिक्शा का अंतिम सफ़र था और वह अंतिम भावनात्मक पल था जिसे मैंने अपने दिल के किसी कोने में जिन्दा ही दफ़न कर दिया था. जो चिता मैंने कुछ घंटे पहले तैयार की थी, उसमे आग लगा दी थी.
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वे दिन गुजर चुके थे. उसके बाद हमारी अंतिम परिक्षाये हुयी और हर कोई एक-दुसरे से विदा होने लगा. आज पूर्णिमा को विदा करने मैं उसके हॉस्टल आया था, और हॉस्टल गेट से निकल कर वो मेरे सामने खड़ी थी. वो मेरे नजदीक आयी और बोली, "हम आगे भी अपनी दोस्ती जारी रखेंगे. मुझे हर हफ्ते फ़ोन करना मत भुलना! ओके!"
मैंने उससे कुछ भी नहीं कहा, बस मेरी आँखों से आंसू बह निकले. हालाँकि मैं न तो रो ही रहा था और न ही मुझे किसी बात का गम ही था. मैं उन पलों को अपने दिल में संजो रहा था. मैं उससे ढेर सारी बाते कहना चाहता था, हमारी दोस्ती के बारे में, हमारे प्यार के बारे में और हमारे संबंधो के बारे में. पर मेरे मुंह से कुछ भी नहीं निकला, सिवाय एक शब्द के, "ठीक है!"
"गुडबाय जितेन्द्र!" उसने अपने अंतिम कहे. फिर वो अपनी कार में बैठी और अपने घर के लिए रवाना हो गयी. मैं उसकी जाती हुयी गाड़ी को देखता रहा, उसके पीछे उड़ रहे धुल और धुएं को भी, जिसमे कुछ-कुछ मेरी भी छाया थी. मुझे ऐसा लगा जैसे उसी क्षण, उसी जगह, मेरी एक दुनिया का दुखद अंत हो गया था. मैंने उस दुनिया को उसी जगह दफ़न कर दिया.
जहाँ मैं खड़ा था, मेरे ठीक बगल में एक बगीचा था जिसमे तरह-तरह के फूल खिले हुए थे. तितलियाँ एक फूल से दुसरे फूल पर मंडरा रहीं थी. अचानक मुझमे परिपक्वता की एक भावना ने प्रवेश किया था. एक तितली आकार मेरे हथेली पर बैठ गयी, और मैं उसको देखता रहा, 'मैं तितली हूँ और लड़कियां मेरे लिए बगीचे में खिले सुन्दर फूलों की तरह है.' मैंने सोचा.
फिर मैंने वो जगह छोड़ कर अपने रूम की तरफ जाने वाली सड़क पर अपने कदम बढ़ा दिए.............        

जितेन्द्र गुप्ता  

Thursday, September 5, 2013

गुप्त साम्राज्य एवं इसका ऐतिहासिक महत्व

यदि हम प्राचीन भारत के इतिहास पर नज़र डालें तो कोई भी कालखंड हममे उतनी उत्सुकता पैदा नहीं करता जितना की तीसरी सदी के अंत से लेकर सातवीं सदी के मध्य तक का कालखंड (३००-६५० ई.), जिसको की हम “गुप्त काल” के नाम से जानते है. विश्व के महान इतिहासकारों ने गुप्त काल को प्राचीन भारत का “क्लासिकी युग” या “स्वर्ण काल” कहा है. वास्तव में गुप्त काल में साहित्य, वास्तुकला व ललितकलाये उस उत्कृष्टतम स्तर पर पहुँच चुकी थी, की वो आगे आने वाले युगों के लिए एक आदर्श बन गयी.
इतिहास में गुप्त काल का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्यों की इस कालखंड में आर्यभट्ट और वराहमिहिर द्वारा ज्योतिष के सिद्धांत रचे गए. कालिदास ने संस्कृत में उत्कृष्टतम नाटकों की रचना करके संस्कृत भाषा साहित्य को उन्नत किया. विश्व के सर्वाधिक प्राचीन लिखित साक्ष्यों में शुमार होने वाले, पुराणों का संकलन इसी काल खंड की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी. उल्लेखनीय है की वराहमिहिर, कालिदास और धन्वन्तरी (प्रख्यात प्राचीन भारतीय चिकित्सक) सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौरत्नों में से एक थे. चीनी यात्री फाह्यान ने इसी कालखंड में भारत की यात्रा की थी, तथा अपनी यात्रा से सम्बंधित बहुमूल्य दस्तावेजों को संकलित किया था, जिसे आज भी प्राचीन भारत का इतिहास लिखने के लिए एक महत्वपूर्ण श्रोत एवं साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
गुप्तों की उत्पति:-
कुछ इतिहासकारों के विचारों को छोड़ दे तो ज्यादातर ऐतिहासिक विद्वान इस बात पर एकमत है की गुप्त राजवंश की उत्पत्ति वैश्यों से हुयी थी. इस सम्बन्ध में प्रख्यात इतिहासकार एलन, एस. के. आयंगर, अनंत सदाशिव अल्टेकर, रोमिला थापर तथा रामशरण शर्मा जैसे ऐतिहासिक विद्वानों के नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह बात सिद्ध की है एवं बताया है की ‘स्मृतियों के अनुसार नाम के उत्तरांश (अंत) में गुप्त शब्द का जोड़ा जाना वैश्यों की विशेषता थी. (हालाँकि कुछ इतिहासकार जैसे आर. सी. मजूमदार, जहाँ गुप्तों को क्षत्रियों से उत्पन्न मानते है वहीँ डॉ. राय चौधरी जैसे विद्वान गुप्तों को ब्राह्मणों से उत्पन्न हुआ मानते है, पर इनके विचार, वर्तमान में उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों और अभिलेखों से मेल नहीं खाते.)
गुप्त राजवंश के बारे में सर्वप्रथम साक्ष्य, तथा उनकी पूरी वंशावलियां पुराणों में उल्लिखित है. इस सम्बन्ध में ‘मत्स्य पुराण’, ‘वायु पुराण’ तथा ‘विष्णु पुराणों’ के नाम उल्लेखनीय है. इसके अलावा अनेक बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ भी है जिनसे गुप्तों के बारे में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है.
गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ. इनका आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश तथा बिहार में था. कालांतर में इन्होने अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा उसे भारत के पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक विस्तृत कर गुप्त साम्राज्य को भारतव्यापी साम्राज्य बना दिया. अगर वृहद् रूप से देखा जाये तो मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उत्पन्न राजनैतिक शून्यता को भरने के लिए, तथा प्राचीन भारत को एक सदी से भी ऊपर के कालखंड तक राजनैतिक एकता के सूत्र में बांधे रखने के लिए ही गुप्तों की उत्पत्ति हुई थी.
गुप्त राजवंश के पराक्रमी शासक:-
गुप्त वंशावली का परिचय देने के लिए, हमारे पास अनेक अभिलेख उपलब्ध है, जिनमे सबसे प्रमुख है समुद्र गुप्त का ‘प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख’, कुमार गुप्त का ‘विलसड स्तम्भ लेख’ और स्कन्द गुप्त का ‘भितरी स्तम्भ लेख’. इनके आधार पर गुप्तों के आदिपुरुष ‘महाराज श्रीगुप्त’ को माना जाता है. इनके पुत्र ‘महाराज घटोत्कच गुप्त’ के उत्तराधिकारी, तथा गुप्त वंशावली में सबसे पहले प्रतापी शासक ‘महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त प्रथम’ थे. चन्द्र गुप्त प्रथम महान शासक हुए, क्यों की उन्होंने ३१९-३२० ई. में अपने राज्यारोहण के स्मारक के रूप में “गुप्त संवत” की शुरुआत की. चन्द्र गुप्त प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी ‘समुद्रगुप्त’ (३५५-३८० ई.) ने गुप्त राज्य का अपार विस्तार किया.
समुद्रगुप्त के दरबारी कवि ‘हरिषेण’ ने अपने आश्रयदाता के पराक्रम का अभूतपूर्व वर्णन किया है. समुद्र गुप्त द्वारा जीते गए क्षेत्रों को हम पांच भागों में विभाजित कर सकते है, प्रथम भाग में गंगा-यमुना के दोआब के वे राजा थे, जिन्हें हरा कर उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिए गए. द्वितीय भाग में नेपाल, असम और बंगाल आदि के राजा थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपनी शक्ति का अहसास कराया. तृतीय भाग में विन्ध्य के जंगलों में पड़ने वाले आटविक राज्य थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपने वश में कर लिया था. चतुर्थ भाग में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के बारह शासक शामिल थे, जिन्हें समुद्रगुप्त ने अपनी अधीनता में लेकर मुक्त कर दिया था. पांचवे भाग में शकों और कुषाणों के नाम है, जिनके राज्यों को समुद्रगुप्त ने जीत कर इन सुदूर देश के शासकों को अपने अधीन कर लिया था. समुद्रगुप्त इतने पराक्रमी थे की उनकी कीर्ति एवं यश भारत के बाहर भी फैली. समुद्र गुप्त को उनकी बहादुरी और युद्ध कौशल के कारण ‘भारत का नेपोलियन बोनापार्ट’ कहा जाता है. यह तथ्य निर्विवादित रूप से सत्य है की समुद्रगुप्त ने भारत के जितने बड़े भूभाग को अपने अधीन कर एकता के सूत्र में बांधा, उससे कही अधिक भाग में उनका लोहा माना जाता है. समुद्र गुप्त की दक्षिण विजय की नीति से उनके दयालु होने के भी प्रमाण मिलते है. उनकी दक्षिण विजय की नीति की तीन आधारशिलाएं  थी- (१) ग्रहण: शत्रु पर अधिकार (२) मोक्ष: शत्रु की मुक्ति (३) अनुग्रह: राज्य को लौटना. इसके अतिरिक्त समुद्रगुप्त एक विद्वान थे तथा संगीत के महान प्रेमी.
समुद्र गुप्त के पश्चात उनके उत्तराधिकारी ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय’ हुए, जो समस्त गुप्त राजाओं में  सर्वाधिक शौर्य और वीरोचित गुणों से संपन्न थे. इन्हें ही ‘चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य’ के नाम से भी जाना जाता है. इनके शासन काल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँच चुका था. दिल्ली में कुतुबमीनार के पास खड़े ‘लौह-स्तम्भ’ पर खुदे हुए अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय का ही कीर्तिवर्णन किया गया है. विभिन्न क्षेत्रों में पारंगत नौरत्न विद्वान चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार की शोभा बढ़ाते थे. चन्द्रगुप्त द्वितीय ने न केवल समुद्रगुप्त द्वारा जीते गए साम्राज्य को अक्षुग्ण बनाये रखा बल्कि मालवा तथा गुजरात के प्रदेशों को जीत कर उसमे अपना प्रभुत्व भी स्थापित किया.
चन्द्र गुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारी ‘कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य’ हुए. इन्होने ने ‘नालंदा विश्वविद्यालय’ की स्थापना की थी. जो इस दुनिया का पहला विश्वविद्यालय था जहाँ पर वर्मा, मलाया, थाईलैंड, चीन, कम्बोडिया और जापान इत्यादि देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे. ‘कुमारगुप्त’ के बाद ‘स्कंदगुप्त’ राजसिंहासन पर बैठे. इन्होने गिरनार पर्वत पर स्थित सुदर्शन झील का पुनरुद्धार करवाया था.
स्कंदगुप्त के बाद कुछ अन्य शासको ने गुप्त वंश की शोभा बढाई जिनमे से कुमारगुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त, भानुगुप्त, कुमारगुप्त तृतीय तथा विष्णुगुप्त के नाम उल्लेखनीय है.
गुप्तकाल की कला एवं स्थापत्य:-
गुप्तकाल की स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन गुप्त सम्राटों द्वारा निर्मित मन्दिर थे. मंदिर निर्माण कला का जन्म इसी काल से हुआ था. गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी इंटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे. भितरगाँव का मंदिर (कानपुर, उ.प्र.) इंटों से ही निर्मित है. इसके अलावा दशावतार मंदिर (देवगढ, ललितनगर) भी गुप्तकालीन कला का उन्नत नमूना है, जो आज भी उस काल के वैभव की कहानी बयां कर रहा है. इसके अलावा अनेक मंदिर और भी है जो सम्पूर्ण भारत में यत्र-तत्र बिखरे पड़े है. जैसे विष्णु मंदिर, शिवमंदिर, लक्ष्मन मंदिर इत्यादि. किन्तु इन सब के अलावा, अगर हम गुप्तकालीन सर्वोत्कृस्ट मंदिर की बात करें जिसके अवशेष आज भी पूरी भव्यता के साथ मौजूद है तो वो है ग्वालियर के किले में उपस्थित प्राचीन ‘तेली का मंदिर.’ हालाँकि ग्वालियर का किला सन ८७५ में बनवाया गया था, किन्तु वैज्ञानिक शोधों से यह बात ज्ञात हुयी है की प्राचीन ‘तेली का मंदिर’ वहां पहले से ही मौजूद था जिसे सन २७५ में तत्कालीन ‘गुप्त शासकों’ ने बनवाया था.
Teli ka Mandir, Gwalior Fort

Teli ka Mandir

गुप्तकाल में चित्रकला भी अपने उच्च शिखर पर पहुँच चुकी थी. गुप्तकालीन चित्रों के उत्तम उदाहरण हमें महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित अजंता की गुफाओं तथा ग्वालियर के समीप स्थित बाघ गुफाओं से प्राप्त होते है.
गुप्तकाल का साहित्य:-
गुप्त काल को संस्कृत साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है. प्रसिद्ध इतिहासकार बार्नेट के अनुसार, ‘प्राचीन भारत के इतिहास में गुप्तकाल का वो महत्व है जो यूनान के इतिहास में पेरिक्लियन युग का है.’ इस काल में भारत के विश्वप्रसिद्ध लेख़क कालिदास (अभिज्ञान शाकुंतलम), विष्णु शर्मा (पंचतंत्र), भारवि (किरातार्जुनियम) और भट्टी (भट्टिकाव्य) जैसे महान साहित्यकारों ने अपनी कृतियों की रचना की.
गुप्त काल का वैज्ञानिक प्रगति में योगदान:-
गुप्तकाल में खगोल-शास्त्र, गणित तथा चिकित्सा शास्त्र का विकास भी अपने चरमोत्कर्ष पर था. इस काल में प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर ने प्रसिद्ध ग्रन्थ वृहत्संहिता एवं पञ्चसिद्धान्तिका की रचना की. आर्यभट्ट अपने समय के विख्यात गणितज्ञ थे. जिन्होंने दशमलव प्रणाली का विकास किया. आर्यभट्ट प्रथम नक्षत्र विज्ञानी थे, जिन्होंने यह बताया की पृथ्वी अपनी धुरी पर घुमती हुयी सूर्य के चक्कर लगाती है. इसके अलावा चिकित्सा के क्षेत्र में न केवल ‘वाग्भट्ट’ जैसे विद्वानों ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अष्टांग हृदय’ की रचना की बल्कि ‘धन्वन्तरी’ जैसे प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य और चिकित्सक ने शल्य-शास्त्र (सर्जरी) का विकास किया. 
अणु-सिद्धांत जो आधुनिक क्वांटम भौतिकी की आधारशिला है, का प्रतिपादन भी गुप्तकाल में ही कर लिया गया था.
गुप्तकाल का मूल्यांकन:-
गुप्तकाल साहित्य, कला एवं विज्ञान के उत्कर्ष का काल था. इस काल में भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ. यह काल श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान सम्राटों के उदय के लिए भी जाना जाता है. इस काल में राजनैतिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता और आर्थिक समृद्धि भी अपने चरम पर थी. इतनी सारी विशेषताओं के होने की वजह से ही अधिकाशतः इतिहासकारों ने गुप्त काल को स्वर्णयुग, क्लासिकल युग, एवं पेरिक्लियन युग कहा है.
वास्तव में गुप्तकाल के शासकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास पर जो अमिट छाप छोड़ी है, उससे वो अमर हो गये है. आगे आने वाली पीढ़िया सदियों तक भारतीय इतिहास के इस युग को याद करेंगी और उसको आदर्श के रूप में पुनः स्थापित करेंगी.
लेख़क :
जितेन्द्र गुप्ता

सन्दर्भ सूची:-
१.      प्राचीन भारत (NCERT BOOK), रामशरण शर्मा.
२.      प्राचीन भारत का इतिहास, डी. एन. झा.
३.      यूनिक सामान्य अध्ययन (भाग-१).

Tuesday, September 3, 2013

“वृद्ध रिक्शावाला”

उस रात “वरुणा एक्सप्रेस” ट्रेन लेट होकर रात्रि 12 बजे पहुँची। 
बाहर तो कई रिक्शा वाले खड़े थे, और सब ने अपने रिक्शे पर यात्रिओं को बिठाया और चलते बने। स्टेशन से निकलने में देरी हो जाने से मैं सब के बाद बाहर निकल पाया। वहा केवल एक वृद्ध रिक्शावाला ही दिखा जिसे कई यात्री जान बूझकर छोड़ गए थे। एक बार मेरे मन में भी आया, इससे चलना पाप होगा, फिर मजबूरी में उसी को बुलाया, वह भी बिना कुछ पूछे चल दिया।

कुछ दूर चलने के बाद सड़क की चढ़ाई थी, तब जाकर पता चला, उसके पास एक ही हाथ था। मैंने सहानुभूतिवश पूछा, ‘‘एक हाथ से रिक्शा चलाने में बहुत ही परेशानी होती होगी?’’

‘‘बिल्कुल नहीं बेटा, शुरू में कुछ दिन हुई थी।’’

रात के सन्नाटे में वह एक ही हाथ से रिक्शा खींचते हुए पसीने-पसीने हो रहा था । मैंने पूछा, ‘एक हाथ की क्या कहानी है?’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वह बोला, ‘‘गाँव में खेत के बँटवारे में रंजिश हो गई, वे लोग दबंग और अपराधी स्वभाव के थे, मुकदमा उठाने के लिए दबाव डालने लगे।’’ वह कुछ गम्भीर हो गया और आगे की बात बताने से कतराने लगा, किन्तु मेरी उत्सुकता के आगे वह विवश हो गया और बताया, ‘‘एक रात जब मैं खलिहान में सो रहा था, जान मारने की नीयत से मुझ पर वार किया गया। संयोग से वह गड़ासा गर्दन पर गिरने के बजाए हाथ पर गिरा और वह कट गया।’’



‘‘क्या दिन की मजदूरी से काम नहीं चलता जो इस उम्र में रात में रिक्शा चला रहे हो?’’ मुझे उस पर दया आई।

‘‘रात्रि में भीड़ कम होती है जिससे रिक्शा चलाने में आसानी होती है।’’ उसने धीरे से कहा।

उसकी विवशता समझकर घर पर मैंने पाँच रूपए के बजाए दस रुपए दिए।
सीढियां चढ़कर दरवाजा खुलवा ही रहा था कि वह भी हाँफते हुए पहुँचा और पाँच रुपए का नोट वापस करते हुए बोला, ‘‘आपने ज्यादा दे दिया था।’’

‘‘आपकी अवस्था देखकर और रात की मेहनत सोचकर कोई अधिक नहीं है, मैं खुशी से दे रहा हूँ।’’

उसने जवाब दिया, ‘‘मेरी प्रतिज्ञा है एक हाथ के रहते हुए भी दया की भीख नहीं लूँगा, तन ही बूढ़ा हुआ है मन नहीं।

देशप्रेम

‘ईश्वर’ बी.एड. की प्रवेश परीक्षा देकर घर लौट रहा था. परीक्षा का केंद्र इलाहाबाद में था. परीक्षा देकर घर लौटने के लिए, उसे बहुत मुश्किल से बस मिली. बस परीक्षार्थियों से खचाखच भरी थी और उसे भीड़ में पैर रखने की जगह भी बहुत मुश्किल से नसीब हुयी थी. दरअसल आस-पास के कई जिलों के परीक्षार्थियों की परीक्षा का केंद्र इलाहाबाद में ही दे दिया था. एकाएक एक ही शहर में इतनी भीड़ हो जाने से ये समस्या उत्पन्न हुयी थी. ‘ईश्वर’ को घर पहुचने की जल्दी थी, इसलिए परीक्षा देने के बाद उसने सीधे बस पकड़ ली. सुबह बस एक चाय पी थी और जल्दबाजी में कुछ खाया भी नहीं था. सुबह से भूखा होने की वजह से उसे चक्कर जैसा महसूस हो रहा था. खैर बस इलाहाबाद से निकल कर अब गावों के रास्ते से गुजर रही थी. उसे इंतज़ार था तो बस के बीच रास्ते में कही रुकने का ताकि वो कुछ खा सके और भूख से मुक्ति पा सके.
करीब घंटे भर की यात्रा के बाद बस एक जगह रुकी. लोग तरोताजा होने के लिए बस से उतर गए. ‘ईश्वर’ भी उतर गया और पास के नल पर अपना मुंह धुलकर पानी पीया. सामने झोपड़ी में एक दुकान थी जहाँ नमकीन और चिप्स के प्लास्टिक के पैकेट लटक रहे थे और झोपड़ी में ही एक छोटा सा फ्रिज भी था जिसमे कोल्ड-ड्रिंक के बोतल रखे हुए थे. बस पर सवार यात्री झोपड़ी वाली दुकान पर टूट पड़े थे. कुछ चिप्स-नमकीन के पैकेट लेकर खा रहे थे और कुछ कोल्ड-ड्रिंक पी रहे थे. उसी झोपड़ी के बगल में एक ठेले वाला भी था जो मूंगफली और चुरमुरे बना कर बेच रहा था.
‘ईश्वर’ को तीखा खाने की इच्छा हो रही थी इसलिए उसने सोचा की क्यों न वह भी चिप्स का कोई पैकेट खरीद ले? या गर्मी से निजात पाने के लिए कोई कोल्ड-ड्रिंक ही पी ले? वह ये करने ही जा रहा था, कि उसे कुछ याद आया और उसके पैर ठिठक गए.
उसे याद आया की ये चिप्स-नमकीन और कोल्ड-ड्रिंक आदि सब विदेशी कंपनियों द्वारा बनाये गए थे. ये वही कम्पनियाँ थी जो यहाँ भारत देश में भारी मुनाफा कमा कर, हमारे देश का पैसा विदेश भेजने वालों में थी. उसे अपनी पढ़ी हुयी एक बात याद आयी, जो उसने अपने स्नातक की पढाई के दौरान पढ़ी थी. ‘इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बनाये गए समानों की कीमत उनके ऊपर छपे हुए दाम का मुश्किल से दस प्रतिशत होता है. उदहारण के लिए अगर किसी कोल्ड-ड्रिंक की कीमत दस रुपये है तो मुश्किल से उसकी लागत एक रुपये अधिकतम आती है. यानि की ये कम्पनियाँ केवल एक रुपये की लागत से नौ रुपये का मुनाफा कमाती है. हम अज्ञानतावश, वैश्वीकरण के नाम पर उनके द्वारा बने उत्पादों को खरीद कर उपयोग करने में गर्व का अनुभव करते है और अनजाने में ही अपने देश के उद्योग धंधो को चौपट कर देते हैं. ज्यादा समय नहीं बीता, आज से करीब दो-ढाई सौ साल पहले हमारे देश में इन्ही जैसी एक कम्पनी व्यापार करने आई थी, जिसका नाम ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ था. उसने व्यापर करने के नाम पर हमें अपना ग़ुलाम बना लिया, और हम पर करीब दो सौ साल तक राज किया.’ आज की ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ से ज्यादा अलग नहीं है. अब अगर अपने कर्मों को नज़रंदाज़ कर, हम बेरोज़गारी का रोना रोयें तो इस दुनिया में हमसे ज्यादा बेवकूफ कौन होगा?
‘ईश्वर’ के मन में इन विदेशी कंपनियों द्वारा बने उत्पादों के प्रति घृणा भर गयी. यह सही था की वह थोड़ी सी बात पर भी कुछ बड़ी-बड़ी देशप्रेम की बातें सोच रहा था, पर यह भी सत्य था की हम बदलेंगे तो ही ये समाज बदलेगा और फिर ये देश.
‘ईश्वर’ बगल में खड़े ठेले वाले की दुकान की तरफ मुड़ गया. उसने उससे मूंगफली और कुछ चुरमुरा खरीदा और खा कर अपनी भूख शांत की. उसके मन में अब शांति थी की उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपने देश के लोंगो के रोज़गार को प्रोत्साहित किया था और अपने देश का पैसा अपने देश में ही रहने दिया था. उसने सोचा की काश हर कोई अपने हर कदम पर यही सोच रखता तो वो दिन दूर नहीं जब हमारा देश फिर से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाता. जरुरी नहीं की हम अपने देश से प्रेम करने के लिए देशप्रेम की बड़ी-बड़ी बातें करे, इन छोटे-छोटे कार्यों के द्वारा भी हम अपने देश से प्रेम का प्रदर्शन कर सकते है.

जितेन्द्र गुप्ता    

Wednesday, December 19, 2012

"मिड डे मील"

"मिड डे मील" (Short Story)
शाम का वक़्त था. मास्टर साहब, अपने आठ साल के बेटे के साथ, टी.वी. देख रहे थे. दूरदर्शन पर "मिड डे मील प्रोग्राम" का प्रचार आ रहा था. एक छह-सात साल की बच्ची, विद्यालय में अपने साथ के बच्चे को भोजन की थाली में भोजन दिखाते हुए कह रही थी- "वाह! दाल की खुशबु; इससे हमें मिलता है प्रोटीन; रोज हरी सब्जी क्यों? क्यों की इससे मिलता है आयरन."
ये देख कर मास्टर साहब के बेटे ने पूछा- "पापा! क्या ये आपके विद्यालय में भी होता है?"
"हाँ बेटा!" मास्टर साहब ने अपने बच्चे की जिज्ञासा को शांत करने की कोशिश की.
"पर ये मेरे स्कूल में तो नहीं होता?" बच्चे ने आगे पूछा.
"बेटा! मैं जहाँ पढ़ाता हूँ वो सरकारी विद्यालय है; वहां गरीब बच्चे पढ़ते है. तुम्हारा स्कूल तो प्राइवेट स्कूल है और हमारे सरकारी विद्यालय से कई गुना अच्छा है."
मास्टर साहब का बेटा शहर के ही एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढता था. स्कूल के मिड डे मील प्रोग्राम के प्रचार को देख कर उसको यह सब नजदीक से देखने की इच्छा हुयी तो उसने अपने पापा यानि मास्टर साहब से जिद करनी शुरू कर दी, की वो ये सब देखने मास्टर साहब के विद्यालय जायेगा. मास्टर साहब ने पहले तो उसको समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उनका बेटा नहीं माना, तो वे उसको लेकर अगले दिन अपने विद्यालय गए.
सुबह ही विद्यालय में रसोइया आया और उसने बच्चो के लिए, दोपहर का भोजन तैयार करने का प्रबंध शुरू कर दिया. भोजन खुले में बन रहा था और आस-पास गली के आवारा कुत्ते मुंह मारने पहुँच गए थे. रसोइये ने दोपहर तक भोजन बना लिया था और जैसे ही घंटी बजी; विद्यालय के बच्चे अपनी-अपनी थाली और कटोरी लेकर भोजन करने पहुँच गए. रसोइये ने बच्चो को खाना वितरित किया, और बच्चे भोजन पर टूट पड़े.
बच्चो को इस तरह भोजन करता देख, मास्टर साहब के बेटे को भी भोजन करने की इच्छा हुयी. वो रसोइये के पास गया; और उससे खाना मांग कर खाने लगा. मास्टर साहब, जो अभी तक दूसरों से गप्पे लड़ा रहे थे, की नज़र सहसा अपने बेटे पर गयी और उसको मिड डे मील का खाना खाते देख कर वो दौड़ते हुए अपने बेटे के पास आये. उन्होंने अपने बेटे के हाँथ से मिड डे मील का खाना छीन कर दूर फ़ेंक दिया, और रसोइये पर बरस पड़े- "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुयी मेरे बेटे को ये सड़ा-गला खाना खिलाने की?"
रसोइया कुछ समझ नहीं पाया और उसने मास्टर साहब से विनती करनी शुरू कर दी- "मुझे माफ़ कर दीजिये साहब! मुझे पता नहीं था की ये आप के बेटे है. वर्ना मैं इनको ये खाना कतई नहीं खिलाता."
मास्टर साहब का बेटा अपने पापा के इस नए रूप को देख कर सन्न रह गया था. पर अगले ही पल उसने मास्टर साहब से कहा- "लेकिन पापा! यही खाना तो ये बच्चे भी खा रहे है; इसमे इतना बुरा क्या है?"
"बुरा है बेटा!" मास्टर साहब ने अपने बेटे से कहा- "ये खाना हमारे जैसे सभ्य लोगों के घरो के बच्चों के लिए नहीं है." फिर वो रसोइये की तरफ मुड़े- "अगली बार से यह बात ध्यान रखना और सभ्य तथा असभ्य बच्चों को पहचानना सीखो. समझे!" रसोइया मास्टर साहब के सामने हाथ जोड़े खड़ा था.
मास्टर साहब का बेटा खाना खाते हुए बच्चो को देखता रहा, और उन्ही बच्चों के बगल में बैठे कुत्तों से, उन बच्चों की तुलना करता रहा. और अब धीरे-धीरे उसे उनमे अंतर समझ में आने लगा. मिड डे मील का खाना खाते हुए बच्चे और कुत्ते दोनों ही जानवर थे; बस फर्क सिर्फ इतना था की मिड डे मील का खाना बच्चों को पहले दिया जाना था; और उसके बाद का बचा-खुचा उन बच्चो के बगल बैठे आवारा कुत्तों को......