परीक्षा का केंद्र बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
में था, और मैंने नियत समय पर वहां पंहुचा और परीक्षा दे दी. परीक्षा
अच्छी गयी थी, और मन सफलता की नईं कुलांचें भर रहा था. परीक्षा कक्ष से बाहर निकला तो मन अनायास ही अध्यात्मिक हो गया. आप काशी जाएँ और मन अध्यात्मिकता में ना रमें, ऐसा हो नहीं सकता. सोचा इतनी दूर आया हूँ, तो
क्यूँ ना काशी में बाबा विश्वनाथ जी के दर्शन ही करता चलूँ. और मेरे पैर अपने आप ही, विश्वविद्यालय
परिसर में स्थित, विश्वनाथ
मंदिर की तरफ बढ़ चले.
मैंने मंदिर में प्रवेश किया, और प्रवेश
द्वार के पास ही बने सामान-घर में, अपना बैग और जूते जमा कर दिए. फिर हाथ-पैर धोकर मंदिर में
प्रवेश कर गया. मंदिर की भव्यता, आकर्षण, और आध्यात्मिकता में मेरा रोम-रोम पुलकित हो रहा था. मेरी
नज़रें, मंदिर की दीवारों पर लगाये गए, और संगमरमर के पत्थरों पर उकेरे गए कथाचित्रों को ध्यान से देखती जा रही थी. किसी पत्थर पर वेदों की बातें लिखी थी तो किसी पर पुराणों के
कथन, कुछ पर उपनिषदों की पौराणिक कहानियां सचित्र वर्णित थी तो कुछ पर गीता के महान उपदेश चित्रित किये गए थे.
मैं खुद को, दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म और सर्वाधिक महान धर्म का हिस्सा महसूस करके गर्व का अनुभव कर रहा
था.ढेर सारी बातें जिन्हें हम बचपन से ही संस्कृत की किताबों में पढ़ते आये है और
ढेर सारे उद्धरण जिन्हें हम रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद और पुराणों से सुनतें आये है, एक
साथ एक ही जगह पर मानों जीवंत हो उठी थी. "सदा सत्य बोलो!",
"कर्म करो, फल
की इच्छा मत करो!", "आत्मा अजर-अमर है!" इत्यादि-इत्यादि. मैंने मंदिर के
गर्भगृह में विराजमान भगवान् शंकर के प्रतिरूप शिवलिंग को प्रणाम किया और अपनी
सफलता की प्रार्थना की.
मेरा मन और शरीर का रोम-रोम आध्यात्मिकता और सात्विकता से पुलकित हो उठा था. मैंने
घडी देखी, मेरे
वापस लौटने का वक़्त लगभग हो चुका था. मैंने मंदिर से बाहर जाने के लिए गेट की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए. वापस
लौटते हुए, मैं फिर से सामान-घर में गया और अपने जूते पहने तथा अपना बैग उठाया,
तो सहसा मेरी नज़र वहां टंगे बोर्ड पर
पड़ी-
"सामान-घर
प्रयोग करने का शुल्क"
प्रति व्यक्ति- १ रूपया
"बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए यह सुविधा निःशुल्क है!"
मुझे लगा की की मैं अपने पैसे बचा सकता हूँ,
और मैंने अपना बैग उठाया और बाहर जाने लगा. तभी वहा पर बैठे सामान
घर के संरक्षक ने मुझे टोका- "सुनिए भाई साहब! आपने पैसे नहीं दिए?"
तुरंत ही मैंने जवाब दिया, "मैं यही का विद्यार्थी हूँ."
इस पर सामान घर के संरक्षक ने कहा, "अपना परिचय पत्र दिखाइए?"
मैं थोडा सकपकाया, फिर अपने हाथों से अपने पैंट की जेबों को चेक करते हुए मैंने
बहाना बनाया, "शायद मैं
अपना बटुआ, छात्रावास में अपने कमरे पर भूल आया हूँ." और जैसे उसे
यकीन दिलाने के लिए, मैंने एक छात्रावास का नाम भी उसे बता दिया, जो
कि रास्ते में मैंने देखा था.
सामान घर के संरक्षक ने मुझसे और सवाल नहीं किये और मैं वहां
से चलता बना. मैं अपनी चालाकी पर इतरा रहा था की मैं कितना स्मार्ट हूँ और कितनी
आसानी से मैंने उस आदमी को बेवकूफ बना दिया. फिर मैं मंदिर परिसर से एकदम बाहर आया, और वापस मुड कर "विश्वनाथ मंदिर" की तरफ देखा. अचानक ही मंदिर की
भव्यता और विशालता के आगे मैं खुद को बहुत तुक्ष महसूस करने लगा. मुझे यह अहसास हुआ कि मैं नैतिक रूप से कितना गिरा हुआ हूँ, जिसने
अपने पैसे
बचाने के लिए झूठ का सहारा लेना भी अनुचित नहीं समझा.
अभी-अभी मैं मंदिर में बड़ी- बड़ी बातें सीख कर बाहर आया, ना
जाने कितने ही अध्यात्मिक और सात्विक विचार
मेरे मन में आये, पर क्या वास्तव में मैं धर्म का अभिप्राय समझ पाया? क्या
धर्म का मतलब केवल कर्मकांडों और अनुष्ठानों से है, व्यवहार और नैतिकता से इसका कुछ लेना देना नहीं? अचानक ही मुझे उस मंदिर का अस्तित्व ही व्यर्थ जान पड़ा, लगा
कि इतना भव्य मंदिर भी मनुष्य में नैतिकता का संचार नहीं कर सका,
और मेरी आंखे खुल चुकी थी.
मैं वापस सामान-घर के संरक्षक के पास गया और उसे एक रूपये देते
हुए उससे क्षमा
मांगी और कहा, "माफ़
कीजियेगा, मैंने आपसे झूठ कहा था कि, मैं यहाँ का विद्यार्थी हूँ, मैं
यहाँ केवल परीक्षा
देने आया था."
पैसे अदा करके, सर झुकाए हुए, मैं मंदिर परिसर से बाहर निकल आया. मेरा मन अब अपराधबोध से खुद को मुक्त महसूस कर रहा था. और मैं
वहा से अपने घर के लिए रवाना हो गया. सच्चे अर्थो में, अब जाकर मैंने उस मंदिर के अस्तित्व को सफल बना दिया था.......
जितेन्द्र गुप्ता
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