Sunday, November 25, 2012

नासमझ श्रोता..


एक बार, सुजानगंज नमक गाँव में प्रवचन हो रहा था, और वहां प्रवचन देने के लिए एक बहुत ही बड़े सिद्ध महात्मा पुरुष पधारे थे. प्रवचन की जगह का पंडाल लोगों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था, और महात्मा जी का प्रवचन चालू था. काफी देर ईश्वर की लीलाओं का बखान करने के बाद महात्मा जी ने अपने भक्तों को उपदेश देना शुरू किया. उन्होंने कहा;- "भक्तजनों! हमें कभी भी चोरी जैसा कुकृत्य नहीं करना चाहिए. इस नश्वर लोक में हम जो बोयेंगे, उस परलोक में वही जाकर काटेंगे. अतः, अगर हम यहाँ इस लोक में एक रूपया चुरायेंगे, तो उस परलोक में हमें एक रूपया दुबारा भरना पड़ेगा. इसके स्थान पर अगर हम एक रूपया दान में दे देते है, तो वह परलोक में हमें इस एक रुपये दान के बदले दस रूपया वापस मिलेगा. यह हमारे किये गए पुण्य के काम होते है जो दिन-प्रतिदिन बढ़ते रहते है. हमारा दान में दिया गया एक रूपया, हमारा नुकसान न होकर, उस परलोक के बैंक में जमा किया गया फिक्स डिपोजिट है, जिसका मूल्य हमें मूलधन से बढ़कर कई गुना ज्यादा मिलेगा. अतः भक्तों! दान की महिमा को समझो."  
प्रवचन सुन रहे भक्तों में से, एक भक्त जिसका नाम "रमेश" थाको यह बात बहुत पसंद आई, और उसने इस कथन को कसौटी पर कसने का निर्णय कर लिया. कुछ दिन बाद, रमेश ने अपने पडोसी के घर से पांच रुपये चुरा लिए, और फिर उस चोरी के पांच रुपये में से तीन रुपये, अपनी पसंद की चीजें खरीद कर खर्च कर डाले. अब उसने देखा की उसके पास चोरी के पांच रुपये में से केवल दो रुपये ही बचे है. उसने सोचा की "अगर मैं यह दो रुपये किसी को दान में दे दूँ, तो महात्मा जी के कथनानुसारइसके बदले मुझे परलोक में बीस रुपये के पुण्य वापस मिल जायेंगे. और क्यों की मैंने पांच रुपये चोरी भी किये है, अतः मुंझे परलोक में पांच रुपये सजा के रूप में भरना भी होगा. तो अगर मैं बीस रुपये में से पांच रूपये निकाल भी दूँ तो भी पंद्रह रुपये के पुण्य मेरे पास बचते ही बचते है. यानि हर तरह से मैं लाभ की ही स्थिति में रहूँगा."
बहुत दिनों बाद जब रमेश की मृत्यु हुयी, और वो परलोक पहुंचा, तो वहां पहुँच कर उसमे यमदूत से अपने पंद्रह रुपये के पुण्य की मांग की. यमदूत ने कहा की "तुम्हारे खाते में तो  एक भी रुपये का पुण्य नहीं है, क्यों की तुमने कभी भी किसी को कुछ भी दान में नहीं दिया. केवल पांच रुपये की सजा ही लिखी गयी है क्यों की तुमने अपने पडोसी के घर से पांच रुपये की चोरी की थी. अब तुम तैयार हो जाओ क्यों की तुम्हे पांच रुपये की सजा कटनी ही होगी."
यमदूत के इस कथन पर रमेश ने उसका विरोध किया, उसने कहा, "आप यह कैसे कह सकते है की मैंने कभी भी कुछ भी दान नहीं किया, जब की मुझे अच्छी तरह से याद है की मैंने दो रुपये दान किये थे, जिसके बदले में मुझे यहाँबीस रुपये वापस मिलने ही चाहिए. यह सही है की मैंने पांच रुपये अपने पडोसी के घर से चुराए थे, इसके बदले आप मेरे बीस रुपये के पुण्य में से पांच रुपये की सजा कट कर मेरे पंद्रह रुपये के पुण्य, मेरे  खाते में तुरंत डालिए."
पर यमदूत उसकी बात नहीं मान रहा था, उसने रमेश से कहा की, "देखो, मुझे चित्रगुप्त जी से जो आदेश प्राप्त हुआ है मैं उसी का पालन कर रहा हूँ. अगर तुम्हे इस निर्णय पर कोई आपत्ति है, तो तुम्हे यमराज जी के पास चलना होगा. वो ही तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान करेंगे."
रमेश ने यमदूत से यमराज जी के पास चलने को कहा, और दोनों यमराज जी के दरबार मे पहुँच गए. यमराज जी के दरबार मे यमराज जी अपने सिंघासन पर बैठे हुए थे और उनके दरबार मे जाने के लिए पृथ्वी से आये मनुष्यों की लाइन लगी हुयी थी. हर मनुष्य अपने-अपने नंबर का इंतज़ार कर रहा था. यमराज जी के बगल मे चित्रगुप्त जी अपने समस्त अभिलेखों और बहियों के साथ बैठे हुए थे. वो बारी-बारी से हर मनुष्य द्वारा किये गए पाप और पुण्य के कर्मों को यमराज जी के सामने बताते और फिर यमराज जी उस पर अपना फैसला सुनाते. हर इन्सान को अपने कर्मों के अनुसार, स्वर्ग और नर्क का फैसला सुनाया जा रहा था.
जब रमेश की बारी आई तो यमदूत ने उस आदमी की सारी समस्या यमराज जी के सामने व्यक्त की. इस पर यमराज जी ने चित्रगुप्त को रमेश के जीवन का अभिलेख दुबारा खोलने का आदेश दिया और कहा की "चित्रगुप्त! यह पता लगाओ की इस मनुष्य के पुण्य के पंद्रह रुपये कहाँ गए? क्या तुम्हारे अभिलेखों मे कही कोई त्रुटी है?"
यमराज जी के आदेश पर चित्रगुप्त ने अपने समस्त अभिलेख दुबारा जांचने शुरू किये. काफी देर जाँच-पड़ताल करने के बाद, वे बोले, "महाराज! मेरे अभिलेखों मे कही कोई त्रुटी नहीं है. दरअसल बात यह है की इस मनुष्य ने अपने पडोसी के घर से पांच रुपये चुराए थे, जिसमे से तीन रुपये इसने अपने ऊपर खर्च किये तथा बाकि के दो रुपये इसने दान मे दे दिए. अब क्यों की इसने पांच रुपये चोरी किये थे जो की पाप का कर्म है, अतः इसकी सजा के रूप मे इस मनुष्य को पांच रुपये दुबारा यहाँ भरना होगा. और चूँकी दान मे दिए गए दो रुपये इसके नहीं बल्कि इसके पडोसी के थे अतः पुण्य के बीस रुपये इसके खाते मे ना आकर इसके पडोसी के खाते मे चढ़ाये जा चुके है. महाराज! कही कोई भी त्रुटी नहीं हुयी है, सारे अभिलेख सही है."
चित्रगुप्त जी की बात अब रमेश की समझ मे आ गयी थी, और अब उसे अपने किये पर पछतावा भी हो रहा था. उसे ग्लानी हो रही थी की उसने महात्मा जी की बात को ठीक तरह से क्यों नहीं समझा? और उनकी कही गयी बात को, अपने फायदे के लिए गलत तरह से समझ बैठा. 
और फिर रमेश को यमलोक मे सजा काटने के लिए भेज दिया गया.
जितेन्द्र गुप्ता 

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