Sunday, November 25, 2012

नाम में क्या रखा है?


बहुत समय पहले, "सुजानगंज" नामक गाँव में "घनानंद दास" नाम का एक लड़का रहता था. वह बहुत शरारत करता था. उसकी शरारतों से तंग आकर उसके गाँव के लड़कों ने उसका नाम "ठनाठन दास" रख दिया. अब वो जहाँ कही भी जाता लोग उसको चिढाने के लिए "ठनाठन दास" कह कर बुलाते. उसके घर में उसके सारे भाई-बहनगाँव में सारे बच्चे, बूढ़े, और जवान लोग अब उसको "ठनाठन दास" के नाम से ही बुलाने लगे. शुरू-शुरू में जब "घनानंद दास" छोटा था, वो इन बातों को गंभीरता पूर्वक नहीं लेता था, पर जैसे-जैसे वो बड़ा होता गया, और लोगों ने उसे उसके असली नाम की जगह उसको "ठनाठन दास" के नाम से ही पुकारा जाना जारी रखा, तो उसको बुरा लगने लगा. और एक दिन जब उसकी अपनी माँ ने ही मजाक ही मजाक में उसको "ठनाठन दास" कह कर बुला लिया, तो उसको बहुत गुस्सा आयाऔर उसने कहा, "माँ! आज तक  बाहर के लोग ही मुझे "ठनाठन दास" के नाम से बुलाते थे, लेकिन उनकी बात और थी. पर आप मेरी अपनी माँ होकर भी मेरा मजाक उड़ा रही है, इसलिए आज से मैं ये घर तो क्या ये गाँव ही छोड़कर जा रहा हूँ. कही किसी और जगह जा कर, मैं अपना बढ़िया सा कोई नाम रखूँगा और कुछ पहचान बना कर ही घर वापस लौटूंगा.
इतना कहकर "घनानंद दास" ने अपना घर त्याग दिया, और फिर अपने गाँव से दूर पूर्व दिशा की तरफ चल पड़े. घर छोड़ते वक़्त "घनानंद दास" को दुःख तो हो रहा था पर वो अपने बिगड़े नाम से इतने दुखी हो गए थे,  की उनमे घर लौटने की लेश मात्र भी इच्छा शेष नहीं थी. मन में कुछ परिवर्तन की आशा लेकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ चले.
अपने रस्ते पर आगे बढ़ते हुए उन्हें एक लड़की दिखाई दी, जो गाय का गोबर उठा रही थी. घर से काफी दूर पैदल चलते-चलते घनानंद को प्यास भी बहुत लग आई थी इसलिए उन्होंने उस लड़की से कहा "बेटीक्या तुम मुझे थोड़ा पानी पिलाना पसंद करोगी?" लड़की अपने घर के अन्दर गयी और पानी लेकर आई. घनानंद ने पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई. खुश होकर घनानंद ने उस लड़की से उसका नाम पूछा . उस लड़की ने बताया की उसका नाम "लक्ष्मीना" है. घनानंद को उस लड़की के नाम और काम में अंतर स्पष्ट नजर आया. उन्होंने सोचा की "इस लड़की का नाम इतना सुन्दर है, पर ये कितना निम्न स्तर का कार्य कर रही है? क्या इस लड़की को अपने नाम की गरिमा का जरा भी अहसास नहीं है?" पर घनानंद दास तो इसमें कुछ भी नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने उस लड़की को आशीर्वाद दिया और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए.
सुबह से ही पैदल चलते-चलते घनानंद को भूख भी लग आई थी, पर वो घर पर तो थे नहीं, जो घर में जाते और अपनी माँ से खाना मांग कर खा लेते.  वो तो अपने घर से काफी दूर आ गए थे इसलिए खाना खाने का प्रबंध उन्हें अब अपने रास्ते में ही करना था. उन्होंने अपने आस-पास नज़र दौड़ाई, और कुछ दुरी पर उन्हें आम का एक पेड़ दिखाई दिया. घनानंद ने अपने कदम उस तरफ बढ़ा दिए. जब वो आम के उस पेड़ तक पहुंचे, तो उन्होंने देखा की एक गरीब आदमी फटे-पुराने कपड़ों में जमीं पर बैठा हुआ था, और मिटटी पर उग आई घास को छिल रहा था. पास ही में उस आदमी का घर भी था. घनानंद को समझ में आ गया की यह पेड़ इसी आदमी का है. पर अपनी भूख के आगे उन्हें कुछ भी नहीं सूझ रहा था इसलिए उन्होंने उस आदमी से पूछ लिया
"भाई! अगर तुम बुरा ना मानो तो मैं तुम्हारे आम के पेड़ से, कुछ आम तोड़ कर खा लूँ? मैं बहुत भूखा हूँ और अपने घर से बहुत दूर आ गया हूँ." 
उस आदमी ने उन्हें इज़ाज़त दे दी. बस फिर क्या था, घनानंद ने झट से पेड़ पर चढ़ कर कुछ आम तोड़े और लपालप खाने शुरू कर दिए. आम खा कर जब उनकी भूख शांत हुयी, तो उन्होंने उस आदमी को धन्यवाद देने के लिए उससे उसका नाम पूछ लिया. उस आदमी ने उन्हें बताया की उसका नाम "धनपत" है. इस पर घनानंद ने कहा की-
"भाई! तुम घास क्यूँ छिल रहे थे, तुम्हारे यहाँ तो कोई पालतू जानवर दिख नहीं रहा?" 
इस पर उस आदमी ने उन्हें बताया, "भाई! मैं बहुत गरीब हूँ और मेरे  पास कोई खेत भी नहीं है जहाँ मैं खेती कर के अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकू इसलिए मैं यहाँ उगी घास छिल रहा था ताकि इसे बाज़ार में बेच कर कुछ पैसे कमा सकू."
उसकी बात सुन कर घनानंद ने उससे अपनी सहानुभूति जाहिर की और आम खिलाने के लिए उसको धन्यवाद् देकर आगे बढ़ गए. रास्ते में उन्होंने सोचा, की उस आदमी का नाम "धनपत" था पर वो कितना गरीब था, यहाँ तक की उसके पास अपना तन ढकने के लिए ढंग के कपडे तक नहीं थे. और फिर घनानंद के मन में एक सवाल उठा की "क्या नाम का काम से कुछ भी लेना-देना नहीं है?"
अपने मन में इन्ही सवालों का जवाब खोजते हुए घनानंद अपने रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहे थे की की रास्ते में उन्हें कुछ लोग रोते हुए दिखाई दिए. घनानंद ने उनमें से एक आदमी से पूछा की "भाई! तुम सब लोग क्यूँ रो रहे हो? तुम लोगों को क्या कोई दुःख है?" 
इस पर उस आदमी ने उन्हें बताया की उसके गाँव के बहुत ही महान समाज सेवक, "सेठ अमरनाथ" का देहांत हो गया है इसलिए ये सब लोग रो रहे है. वो बहुत अच्छे आदमी थे और जो भी उनके पास मदद के लिए जाता था वो उसको कभी खाली हाँथ नहीं लौटाते थे. 
उसकी बात सुनकर घनानंद ने सोचा की, "नाम अमरनाथ होते हुए भी आज यह इंसान मृत पड़ा हुआ है. इसका मतलब नाम का काम से निश्चित रूप से कुछ भी लेना-देना नहीं है. और नाम में कुछ भी नहीं रखा है." अब घनानंद को अपने मन में, अपने नाम को लेकर पैदा हुई उलझनों का जवाब मिलने लगा था. उन्होंने अपनी अभी तक की अपनी यात्रा से यह निष्कर्ष निकाला की-
"लक्ष्मीना गोबर बिने, धनपत छिले घास.
अमरनाथ भी मर गए, भले ठनाठन दास."

और अब घनानंद का गुस्सा भी छूमंतर हो गया था और वो खुशी-खुशी अपने घर को वापस लौट चले.
जितेन्द्र गुप्ता 

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